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क़ुरआनी अलफ़ाज़ की ग़लत तफ़सीर (वहाबियत के हाथों)

इस मज़हब का अहम तरीन कारनामा तौहीद और शिर्क का मसअला है और जैसा कि मेने कहा कि यह सब इब्ने तेमिया के अक़ीदों की पैदा वार है। “मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब” अपनी मेगज़ीन “कश्फ़ुल शुबहात” में उन के बारे में लिखता है जिस का निचौड़ कुछ इस तरह है। 1) इस्लाम ने जिस तौहीद की दावत दी है वोह इबादत के बारे में है क्यों कि अरब के मुशरिक ख़ुदा की वेहदानियत के मानने वाले थे वोह कहा करते थे कि पूरी दुनिया अल्लाह की मख़लूक़ है।

ولئن سألتهم من خلق السماوات والارض لیقولنّ خلقهنّ العزیز العلیم जब भी उन से सवाल किया जाता था कि ज़मीन व आसमानों को किस ने बनाया? कहते हैं कि आलिम और क़ुदरत रखने वाले ख़ुदा ने। दूसरी जगह पर इरशाद होता हैः- قل من یرزقکم من السماء والارض أمّن یملک السمع والابصار و من یخرج الحیّ من المیّت و یخرج المیّت من الحیّ و من یدبّر الامر فسیقولون الله فقل أفلا تتّقون (सूर-ए-यूनुस आयत, 31) (ऐ पैग़म्बर) कह दिजीये, कौन तुम्हें ज़मीन और आसमान से रिज़्क़ देता है? और कौन आखों और कानों का मालिक है? और कौन ज़िन्दा को मुर्दा और मुर्दे को ज़िन्दा करता है और कौन दुनिया के कामों को चलाता है? कहते हैं अल्लाह! फिर कह दें कि क्यों तक़वा इख़्तियार नहीं करते हो? इन आयतों पर ध्यान देने से यह मालूम होता है कि अरब के मुशरेकीन इस दुनिया के ख़ालिक़ (पैदा करने वाले) बन्दों के राज़िक़ (बन्दों को रिज़्क़ देने वाले) और दुनिया के मुदीर और सरपरस्त को एक ख़ुदा जानते थे तो फिर उन के ज़रीये शिर्क कहाँ था? उन के अन्दर पाई जाने वाली ख़राबी सिर्फ़ इबादत में थी जिस में तौहीद नहीं पाई जाती थी यानी वोह बुतों और कुछ बन्दों की परसतिश (इबादत) करते थे दूसरे लफ़्ज़ों में अरब के मुशरेकीन ख़ुदा के एक होने और रब्बुल आलामीन के मुनकिर न थे, बल्कि ख़ुदा की इबादत में शिर्क करते थे और इस्लाम उसी एक ख़ुदा की इबादत की दावत देता था। 2) “शिर्क” का मफ़हूम और मतलब यह है कि इंसान एक ख़ुदा के अलावा दूसरों को पुकारे और मुशकिलों के वक़्त उस से पनाह तलब करे (मिसाल के तौर पर या रसूल अल्लाह और या अली कहे) क्यों कि क़ुरआने मदीज कहता हैः- فلا تدعوا مع الله احداٌ 3) अगर कोई शख़्स पैग़म्बरे इस्लाम (स.) (या इस्लाम के रेहबरों या नेक बन्दों) से शिफ़ाअत (बख़शिश) तलब करे तो यह शिर्क है और उस की जान व माल अल्लाह को एक मानने वालों पर हलाल है!  क्यों कि वोह मुशरिक है और हर मुशरिक का ख़ून, माल व दौलत हलाल है, क़ुरआन कहता हैः--- قل لله الشفاعة جمیعا له ملک السماوات والارض ثم ألیه ترجعون (सूर-ए-ज़ुमर, आयत, 44) कह दीजिये कि पूरी तरह से अल्लाह की शिफ़ाअत का हक़ है ज़मीन व आसमान की हुकूमत उसी की है और उसी की तरफ़ पलट कर जाने वाले हो। 4) इसके अलावा जब अरब के मुशरेकीन पर बुत परस्ती को लेकर ऐतेराज़ किया गया तो जवाब में उन्हों ने कहाः- ما نعبد هم ألاّ لیقرّبونا ألی الله زلفی हम बुतों की सिर्फ़ इस लिये परसतिश करते हैं ताकि यह हमें ख़ुदा के क़रीब कर दें और पैग़म्बर (स.) ने उन की बात को बिल्कुल क़बूल नहीं किया। पस इस वजह से उन की बुत परस्ती ख़ालिक़ और राज़िक़ की हैसियत से नहीं थी बल्कि अल्लाह के नज़दीक बुतों को शिफ़ाअत करने वालो की हैसियत से थी लिहाज़ा जो भी ख़ुदा के अल्लाह शिफ़ाअत करने वाला क़रार देगा अरब के मुशरेकीन जैसा है और उस की जान व माल सब हलाल है। यह है तौहीद और शिर्क में उन की बात का निचौड़। तहक़ीक़ हक़ीक़त में वहाबियों की कई किताबों में ज़्यादा तर भरोसा ऊपर ज़िक्र की गईं आयतों पर है कि जिस को अपनी दलील बनाते हैं और उन की कोशिश यह रहती है कि क़ुरआने करीम की दूसरी आयतों से सादगी के साथ गुज़र जायें और उन से अपनी आँख बचा लें यानी क़ुरआने करीम पर अपने इख़्तियार से अमल करते हैं। इन की कोशिश यह रहती है कि अपने मुख़ालिफ़ उलेमा को जोकि क़ुरआने मजीद की दूसरी आयतों के ज़रीये इन ग़लतियों को सामने लाना चाहते हैं, हथियार डालने पर मजबूर कर दें। वोह ग़ैर मंतक़ी दलील पैश करते हुऐ (यानी वोह दलील जो मंतक़ी न हो यानी जिसे अक़्ल क़बूल न करती हो) कहते हैं कि हमारे नज़रिये तौहीद और शिर्क की मुख़ालिफ़त के सिलसिले में जो दलीलें पेश करते हैं वोह सब की सब एक जैसी आयतों से पेश करते हैं और उन्हों ने अपने दावे को साबित करने के लिये क़ुरआन के मोहकामात से फ़ाएदा उठाया है। (शरहे कशफ़ुल शुबहात पेज 74) इस बात को बारीकी से देखने के बाद यह बात खुल कर सामने आती है कि क़ुरआने मजीद की छे इस्तेलाहों के सिलसिले में उन की ग़लत फ़ेहमी और ग़लत नतीजा निकालने की वजह से यह लोग अपने मानने वालों को छोड़ कर बाक़ी सब को मुशरिक क़रार देते हुऐ उन पर कुफ़्र का फतवा लगा दें। और बहुत अफ़सोस के साथ यह कहना पड़ता है कि इस्लामी दुनिया ने उन छे अलफ़ाज़ के माइनी में उन की ग़लतियों की वजह से अब तक बहुत बड़ी क़ीमत भी अदा की है। उसके बदले में किस क़द्र मुसलमानों का मोहतरम ख़ून बहाया गया। और किस क़द्र उन के माल और असबाब लूटे गऐ। यहाँ तक कि आज भी कुछ जगहों पर यह तरीक़ा जारी है जिस की मिसालें अफ़ग़ानिस्तान में तालेबानी हुकूमत के ज़माने में और पाकिस्तान की शिया मस्जिदों में सिपाहे सहाबा के ज़रीये और ईराक़ में अहले सुन्नत व शिया सफ़ों में बम बलास्त और ख़ुद कश हमले यहां तक कि सऊदी अरब के शहर  रयाज़ और अलख़बर में बेरहमाना ज़ुल्म व सितम देखने को मिलता है। आख़िर वोह लोग अल ज़हर, दमिश्क़, क़ुम और नजफ़ में मौजूदा उलेमा-ए-इस्लाम के साथ इस्तदलाली व मंतक़ी बहस के लिये क्यों नहीं बेठे ताकि हक़ीक़त रोशन हो जाये? आख़िर क्यों उन के कुछ रेहनुमाओं की बात चीत और बहस अय्योहल मुशरिक व जाहिल जैसे जुमलों से शुरु होती है और कहने वाला पहले से ही अपने ख़याल में सामने वाले को क़त्ल होने के क़ाबिल और मुशरिक और नादान समझता है और फिर बहस करता है और यह सिलसिला अभी तक जारी है? वोह लोग क्यों क़ुरआने मजीद की इस आयत के हुक्म के मुताबिक़ः فبشّر عبادی الّذین یستمعون القول فیتّبعون أحسنة (सूर-ए-ज़ुमर आयत 17-18) दौस्ताना अंदाज़ में बात शुरु क्यों नहीं करते? अगर ऐसा करते तो मुसलमान का इस क़द्र पाक व मोहतरम खून न बहाया जाता, उन के माल व सामान न लूटे जाते इस्लाम के दुशमन उन पर हावी न हो पाते छोटी सी सहूनी जमाअत मुसलमान के मुक़द्दस मक़ामात को अपना खिलोना न बनाती। नहीं मालूम कि यह लोग ख़ुदा वन्दे आलम को क़यामत के दिन और हिसाब किताब के वक़्त क्या जवाब देंगे? बहरहाल यह छ कलमात जो बहुत ज़रूरी हैं यह हैं: (1)     शिर्क व मुशरिक (क़ुरआने मजीद में) (2)     कलमा (लाएलाहा इल्लल लाह), क़ुरआने मजीद में) (3)     इबादत (क़ुरआने मजीद में) (4)     शिफ़ाअत (क़ुरआने मजीद में) (5)    दुआ (क़ुरआने मजीद में) (6)    बिदअत (क़ुरआन व हदीस ममें) 1)    शिर्क का मतलबः- सब से पहली ज़रूरी वजह जिस को ले कर वहाबी हज़रात बड़ी ग़लती का शिकार हैं औऱ जिस के नतीजे में बहुस से मुसलमानों की जान व माल और इज़्ज़तो को हलाल होने का फ़तवा दे बेठे “कलमा” और “शिर्क” के माइनी में है। “शिर्क” का लफ़्ज़ अर्बी लुग़त में “किसी चीज़ के शरीक होने के माइनी में है यानी किसी चीज़ के शामिल होने का नाम है शिर्क” अरब की ज़बान में इशतेराक के माइनी में लिखते हैं اشرک الله جعل له شریکاً فی ملکه और शिर्क के माइनी में लिखते हैं والشّرک أن یجعل الله شریکاً فی ربوبیة इस लिहाज़ से शिर्क की तफ़सीर ख़ुदा का उसकी हाकमियत और रबूबियत में शरीक क़रार देना है। राग़िब, मुफ़रेदात में लिखते हैं “शिर्क दीन में दो तरह से होता है, एक शिर्के आज़ीम है यानी इंसान अल्लाह के लिये कोई शरीक और मिस्ल क़रार दे जो कि जन्नत में मेहरूमियत की वजह है” من یشرک با الله فقد حرّم الله علیه الجنّة और दूसरे शिर्के सग़ीर (यानी छोड़ा शिर्क) यानी कुछ कामों में इंसान ख़ुदा के अलावा किसी दूसरे की तरफ़ ध्यान दे तो वोह रियाकारी और दिखावा है इसी को निफ़ाक़ कहते हैं जैसा कि क़ुरआन इशारा करता हैः- وما یؤمن أکثرهم بالله ألاّ وهم مشرکون (सूर-ए-सूयुफ़ आयत 106) इस वजह से शिर्के अज़ीम हक़ीक़त में ख़ुदा का उसके ख़ालिक़ होने, मालिक होने, और इबादत में शरीक क़रार देना है। लेकिन अगर हम यह कहें कि हज़रते ईसा अलैहिस्सलाम ला इलाज बीमारियों को ख़ुदा की इजाज़त से शफ़ा देते थे मुर्दों को अल्लाह की इजाज़त से ज़िन्दा करते थे और वोह इल्म जो ख़ुदा वन्दे आलम से हासिल किया उसके ज़रीये छुपी हुई बातों की और ग़ैब की ख़बर देते थे तो न शिर्क किया और न कोई बेहूदा बात कही। क्या क़ुरआने मजीद हज़रत ईसा की ज़बान से यह नहीं कह रहा हैः---- و أبرء الاکمه والابرص و أحی الموتی باذن الله و أنبّئکم با تأکلون وما تدّخرون فی بیوتکم أنّ فی ذلک لایة لکم أن کنتم مؤمنین (सूर-ए-आले इमरान, आयत 49) (और उसको रसूल को उनवान से) पैग़म्बर (स.) के बनी इस्राईल की तरफ़ (क़रार दिया जो उन से कहता है) मैं अपने परवर्दिगार की तरफ़ से तुम्हारे लिये निशानीयां लाया हूँ मैं मिट्टी से परिन्दे की शक्ल बना दूँगा और फिर उसमें रूह फूकूंगा और ख़दा के हुक्म से वोह ज़िन्दा परिन्दा हो जायेगा और ख़ुदा के हुक्म से जो पेदाइशी अंधा होगा और सफ़ैद दाग़ वाला होगा उसे शिफ़ा दूंगा और मुर्दों को ज़िन्दा करूंगा और जो तुम लोग खाते हो और अपने घरों में जमा करते हो उस से तुम्हें बा ख़बर करूंगा, यक़ीनन उस में तुम्हारे लिये निशानीयां हैं अगर ईमान रखते हो।” इस बिना पर अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) और आइम्मा अहलेबैत (अ.) या नेक और सालेह बन्दों के ज़रीये कामों को उसी अंदाज़ में “यानी ख़ुदा के हुक्म से” अंजाम दें या हम उसको इस तरह का तक़ाज़ा करें, न तो सिर्फ़ यह कि फ़क़्त शिर्क नहीं किया बल्कि ऐने तौहीद के मुताबिक़ काम अंजाम कर दिया है। क्यों कि हम कभी भी इन्हें ख़ुदा के मिस्ल या उस के बराबर क़रार नहीं देते बल्कि इन्हें ख़ुदा के फ़रमाबरदार और मुती बन्दे और उसके हुक्म को जारी करने वाले जानते हैं। हैरत है कि वहाबी रेहबरों ने किस तरह कल्मा “शिर्क” से जिस के इतने वाज़ेह और आसान माइनी हैं इस तरह का नतीजा निकाल लिया और ख़ुदा के बन्दों से हर तरह की दरख़्वास्त और हर तरह के दावे को जो सिर्फ़ ख़ुदा के हुक्म के अलावा कोई काम नहीं करते, शिर्क समझ लिया, यह बात तो खुले लफ़्ज़ों में क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। आप गुमान कीजिये कि एक नोकर है जो अपने मालिक का पूरे जिस्म के साथ हर तरह से उस की इताअत करता है और कोई काम उसकी बिना इजाज़त के अंजाम नहीं देता अगर कोई उस से कह कि अपने मालिक से फ़लाँ काम करने को कहो तो क्या तक़ाज़ा करने वाले ने “नोकर” को उसके मालिक के बराबर और एक जैसा बनाया है? क्या कोई ज़िन्दा ज़मीर इंसान यह बात क़बूल करने के लिये तैयार हो सकता है कि यह काम शिर्क है? इन लोगों की सारी ग़लतियां और शुबहात यहीं से पैदा होते हैं जो कि उन्हों ने क़ुरआन की आयात को एक दूसरे के साथ रख कर नहीं देखा कि हक़ीक़ी माइनी रोशन होते बल्कि पहले से ही जो माइनी उन की समझ में आये उन्हें क़बूल कर लिया और बाक़ी को छोड़ दिया। 2)- ऐलाह का मतलब वहाबियों के शैख़ुल इस्लाम का सोचना यह है कि ऐलाह का कलमा सिर्फ़ माबूद के ही माइनी में है इसी लिये लाऐलाहा इल्लल लाह का जुमला जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) और तमाम दुनिया वालों का नारा है, सिर्फ़ इबादत में तौहीद की तरफ़ इशारा है यानी ख़ुदा वन्दे आलम के अलावा कोई माबूद नहीं है। और इस तरह ख़ालक़ियत, राज़क़ियत, रबूबियत वग़ैरह में शिर्क की नफ़ी नहीं करता है इस लिये कि जाहिल मुशरेकीन ख़ालक़ियत और रबूबियत में तौहीद को क़बूल करते थे उन के साथ परेशानी बस इबादत में थी कि वोह अपनी इबादत में तौहीद को नहीं मानते थे और ग़ैर ख़ुदा की इबादत करते थे।