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ज़ुल्मत से निजात

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ज़ुल्मत से निजात

"मुहब्बत व नफ़रत" या "तवल्ला व तबर्रा" और लग़वी (शब्दकोश) और मानवी ऐतेबार (रूप) से एक दूसरे की मुताज़ाद (शब्दविलोम) लफ़्ज़ें हैं और "लानत व मलामत" की मानवी हैसियत से क़द्रे हमआहन्ग है इस लिये बाज़ उल्मा लानत मालामत को तबर्रा से ताबिर करते है और यह कहते हैं किसी पर तबर्रा या लानत ना किजाये चाहे वह दुश्मनें अहलेबैत अ. ही क्यों न हो।

अक़्ली और मन्तक़ी उसूलों की रौशनी में "तबर्रा व लानत" के मोतरज़ीन की यह बाद दुरूस्त नहीं है कि जो लोग बूरे बदकिरदार थे या हैं उन पर लानत सलामत न किजाये इस ज़ैल में एक सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या किसी ऐसे आदमी पर जो वाक़ई बुरा है लानत करना या उसे बुरा कहना दुरूस्त है या नहीं ?इस सवाल के जवाब में पहले हमें यह देखना होगा कि किसी आदमी को बुरा कहने और बुरा समझने में फ़र्क़ है ?

अहले इल्म हज़रात इस अम्र से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि बुरे और भले के दरमियान फ़र्क़ पैदा करना हवासे बातिन का काम है ,इसलिये बुरे को बुरा और भले को भला समझने पर इन्सान फ़ितरतन मजबूर है यानी भले और बुरे में तमीज़ करना इन्सान का फ़ितरी क़ौल है और अगर कोई आदमी या आलिम यह कहता है कि हम बुरे को भी बुरा नहीं समझते तो इस ना समझने वाले आदमी या आलिम के बारे में इसके अलावा और क्या समझा जा सकता है कि वो नफ़्से नातिक़ा से महरूम और मजनून है।

अव्वल तो बुरे शख़्स को बुरा न कहने वाला ख़ुद जिहालत में गिरफ़्तार हो जाता है यानी जब उसे मालूम हो कि फ़ुलॉ शख़्स बुरा है तो उसने उसको बुरा समझ लिया क्यों कि उसके नज़दीक मालूम करने और समझ लेने में कोई फ़र्क़ नहीं है ,दूसरे यह अम्र भी क़ाबिले ग़ौर है कि जो शख़्स किसी बुरे आदमी को बुरा नहीं समझता वह बज़ाते ख़ुद बुरा है या अच्छा ?

इस मंज़िल में अक़्ल का फ़ैसला यह होगा कि अव्वल तो बुरे का बुरा न समझने वाला शख़्स बुरा न समझने का इक़रार ज़बानी कर रहा है वरना उसका दिल बुरे को बुरा ज़रूर समझा होगा दूसरे अगर वाक़ई इसका दिल भी बुरे को बुरा नहीं समझता तो इसका मतलब यह होगा कि उसने भी बुरे कामो को अन्जाम देते-देते अपने अन्दर यह फ़ितरते सानिया पैदा कर ली जो किसी बुरे शख़्स को बुरा समझने ही नहीं देती यानी बुरे को बा न समझने वाला शख़्स ख़ुद भी बुरा है।

इस फ़ितरी उसूल की रौशनी में यह मालूम हुआ कि "अच्छे को अच्छा" और "बुरे को बुरा" समझना या न समझना इन्सान का इख़्तेयानी फ़ेल नहीं है बल्कि फ़ितरी तक़ाज़ो के तहत इन्सान बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा समझने के लिये मजबूर है और इस मजबूरी के तहत अगर वह ज़ालिमों और ग़ासिबों को बुरा कहने लगे उनके अफ़आल और आमाल से नफ़रत करने लगे उनसे बचना चाहे ,उनसे इज़हारे बेज़ारी करे ,उनसी दूरी इख़्तियार करे और उन पर लानत मलामत करे तो इसमें क्या ग़लत है।

लानत का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में मुख़तलिफ़ मक़ामात पर इस्तेमाल हुआ है मसअलन लानतुल्लाहे अल्लल काज़ेबीन और लानतुल्लाहे अल्ज़जालेमीन वग़ैरा लेकिन अगर कोई यह सवाल करे कि अल्लाह ने ख़ुद लानत की है मगर उसने दूसरों को लानत करने का हुक्म कहाँ दिया है ?इस इशतेबाह (शक) को क़ुरआने मजीद ने एक दूसरे मक़ाम पर इन अल्फ़ाज़ के साथ दूर किया है कि "उलाएका जज़ाओहुम इन्ना अलैहिम लानतुल्लाहे व मालाऐकतेही वन-नासे अजमाईन "

सुराए-आले इमरान आयत- 87।

तर्जुमा- उनकी सज़ा यह है कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते और लोग उन पर लानत करते हैं ,और दूसरी आयत में इरशाद हुआ कि "बेशक जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तियार किया और कुफ़्र ही की हालत में मर गये ,उन्हीं पर ख़ुदा की फ़रिश्तों और तमाम लोगों की लानत है।"

सुराए बक़रा ,आयत- 161।

इन आयतों से पता चलता है कि अगर फ़रिश्तों और उन तमाम लोगों जिनका शुमार मख़लूक़े ख़ुदा में है ,लानत करने का हुक्म न होता तो क़ुरआन इसका तज़किरा ही न करता बल्कि यह कहता कि आख़ीर इन फ़रिश्तों और दीगर लोगों को क्या हो गया है कि वह लानत करने लगे हैं। इस अन्दाज़ में ज़िक्र न करना इस बात की मोहकम दलील है कि लानत करने का अमल निगाहे क़ुदरत में ममदूह व मुस्तहसन है नीज़ इस से यह भी ज़ाहिर होता है कि लानत करने का इस्तेहक़ाक़ (हक़) ग़ैरे ख़ुदा को भी है जिसमें फ़रिश्तें और इन्सान नुमाया हैसियत रखते हैं।

इसके अलावा हदीसो और तारीख़ों की किताबों से यह बात भी साबित है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मुस्तहक़ीने लानत पर नाम बनाम लानत की है तारीख़ में पैग़म्बरे इस्लाम नाम लेकर लानत करते नज़र आ रहे हैं। अल्लामा ज़मख़शरी ने रबीउलअबरार के सफ़ा नम्बर 92पर तहरीर किया है कि जंगे ओहद में पैग़म्बरे इस्लाम ने अबू सुफ़ियान ,सफ़वान इब्ने उमय्या और सहल इब्ने अमरू पर नाम लेकर लानत की। इसलिये किसी आलिम का यह कहना भी दुरूस्त नहीं हो सकता कि किसी मुस्तहक़े लानत पर उसके नाम के साथ लानत न की जाये।

मुख़्तसर यह कि बुरे बदकिरदार ,बदआमाल और ख़ुसूसन दुशमनाने आले रसूल (स.अ. वा आलेही) पर लानत का जवाज़ क़ुरआन हदीस और तारीख़ से साबित है और इसमें न तो किसी इन्कार की गुंजाईश है ,न उसकी तावील मुमकिन है और न उसे झुठलाया जा सकता है।

ज़ेरे नज़र किताब "ज़ुल्मत से निजात" जो आक़ाई वहीद मुहम्मदी के बेहतरीन क़लम का नतीजा है दरहक़ीक़त उस अक़्ली व नक़्ली और क़ुरआन व तारीख़ी बहस पर मुबनी (आधारित) है जिसके मुतरज्जिम जनाब अबु मोहम्मद हैं जिन्होंने इस गरॉक़द्र सरमाये को फ़ारसी से उर्दू में नक़्ल किया है।

उर्दू में इस किताब की मक़बूलियत के बाद बेहद इसरार हुआ कि इस किताब को हिन्दी में भी पेश किया जाये ताकि उर्दू न जानने वाले नौजवान भी फ़ायदा उठा सकें इसी लिये हिन्दी में यह किताब नाज़रीन की ख़िदमत में हाज़िर है।

हम इस किताब की इशाअत के साथ यह उम्मीद करते हैं कि यह गुमराहों के लिये मशअले राह बनेगी और अवामी सतह पर बेदारी की एक लहर पैदा करेगी।