हज़रत अली अलैहिस्सलाम
हज़रत अली अलैहिस्सलाम
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हम इस बात के लिए प्रसन्न और ईश्वर के कृतज्ञ हैं कि इस दिन काबे की दीवार में दरार पड़ी और न्याय में निखार आया।
सृष्टि ने पुनः बसंत का अनुभव किया और थकी हुई धरती का भाग्य जाग उठा। इतिहास के तपते हुए मरूस्थल पर न्याय की हरी-भरी छाव फैल गई। और सभी ईश्वरीय दूतों की विशेषताओं का उत्तराधिकारी आ पहुंचा। आज ही के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहायक,मुस्तफ़ा के प्रिय, स्वर्ग की सूचना और भलाइयों का पवन आकाश से उतर आया। इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम के वास्तविक उत्तराधिकारी ने धरती पर क़दम रखा। आज १३ रजब हज़रत अली अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म दिवस है।
इस्लामी समाज में एकता को विशेष महत्व प्राप्त है और यह, इस्लामी समाज के महत्वपूर्ण एवं मौलिक विषयों में से एक है। इस्लामी एकता एसी अदिवतीय विभूति है जो मुसलमानों के ईमान, अनेकेश्वरवाद पर विश्वास, पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी और पवित्र क़ुरआन पर आस्था की छत्रछाया में अस्तित्व में आई है। पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) तथा उनके पवित्र परिजनों के कथनों में इस्लामी समाज में एकता पर बहुत अधिक बल दिया गया है। इस्लामी शिक्षाओं मे स्पष्ट रूप से मुसलमानों को एकजुट रहने का आदेश दिया गया है तथा मतभेदों से बचने की सिफ़ारिश की गई है। पवित्र क़ुरआन की आयतों के अनुसार मतभेदों से बचने का मार्ग,धर्म और ईश्वर के सीधे मार्ग का अनुसरण अर्थात ईश्वर का आज्ञापालन करना है। सूरए अनआम की आयत संख्या १५३ में इस विषय का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैः- यह मेरा सीधा रास्ता है तुम उसपर चलो और भ्रष्ट मार्गों का अनुसरण न करो कि वह तुम्हें सत्य के मार्ग से दूर कर देता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस्लामी जगत में एकता को विशेष महत्व देते थे। इसको वे ईश्वर की अद्वितीय अनुकंपा मानते थे। हज़रत अली का कहना था कि समाज की भलाई संगठित रहने में ही है। इस बारे में उनका कथन है कि इस बात के दृष्टिगत कि ईश्वर भी संगठन या एकता के साथ है मुसलमानों को एकजुट रहते हुए अपनी एकता की सुरक्षा करनी चाहिए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम समाज या राष्ट्र में मतभेदों से होने वाली क्षति को स्पष्ट करते हुए इसकी उपमा उस भेड़ से देते हैं जो अपने रेवड़ से अलग हो गई है और अब वह चरवाहे की सुरक्षा से वंचित हो चुकी है। इस आधार पर व्यक्ति को संगठित समाज से अलग नहीं होना चाहिए ताकि विदेशी शत्रुओं के षडयंत्रों से बचा जा सके और आपस में एकजुट रहकर एकता के लाभों से लाभान्वित होना चाहिए।
इस्लामी समाज को एकजुट रखने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम की जीवनशैली, सर्वोत्तम शैली है। पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कथनों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के स्वर्गवास के पश्चात लोगों के ईश्वरीय मार्गदर्शन का दायित्व, ईश्वर की ओर से इमाम अली अलैहिस्सलाम के लिए निर्धारित किया गया था। इसका एक प्रमाण यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम ने अपने जीवन में हज़रत अली के ईश्वरीय नेतृत्व पर कई बार बल देने के बावजूद अपने स्वर्गवास से कुछ समय पूर्व ग़दीरे ख़ुम में स्पष्ट शब्दों में ईश्वर की ओर से हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़लीफ़ा होने अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन और उन्हें अपनी उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की थी। इस अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा था कि जिसका मैं मौला अर्थात अभिभावक हूं मेरे बाद अली उसके मौला हैं।
बड़े खेद की बात है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के स्वर्गवास के पश्चात हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस ईश्वरीय अधिकार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने आरंभ में तो अपने ईश्वरीय अधिकार की मांग की किंतु इस ईश्वरीय पद के लिए कई दावेदारों के सामने आने और इस कारण नवोदित इस्लामी समाज में उत्पन्न होने वाले मतभेदों के दृष्टिगत और इस्लामी समाज में एकता और अखण्डता बनाए रखने और सार्वजनिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से हज़रत अली (अ) ने मौन धारण कर लिया। इसका मुख्य कारण यह था कि एसी परिस्थति में इस्लाम के आधारों के कमज़ोर होने का ख़तरा पाया जाता था। इस ख़तरे को इस प्रकार से समझा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के स्वर्गवास के पश्चात मदीने के बाहर एक गुट अबूबक्र की ख़िलाफ़त का प्रबल विरोधी था। दूसरी ओर पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास की सूचना मिलने के पश्चात एक गुट ने धर्म छोड़ दिया था। एक अन्य समस्या यह थी कि “मुसैलमा” तथा “सजाह” जैसे लोगों ने स्वयं को पैग़म्बर घोषित करके एक गुट को अपने इर्दगिर्द एकत्रित कर लिया था।
दूसरी ओर मदीने पर आक्रमण का ख़तरा बहुत अधिक हो गया था। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने एक पत्र में मिस्र वासियों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ईश्वर की सौगंध मैने कभी सोचा भी नहीं था कि अरब, ख़िलाफ़त अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन के दायित्व को पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से अलग कर देंगे या मुझको उससे रोक देंगे। यह देखकर मुझको बहुत आश्चर्य हुआ कि लोग अमुक व्यक्ति की बैअत अर्थात आज्ञापालन के लिए दौड़ पड़े। इन परिस्थतियों में मैंने अपना हाथ खींच लिया। मैंने देखा कि कुछ लोग इस्लाम छोड़ चुके हैं और वे मुहम्मद (स) के धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। एसे में मुझको इस बात का भय सताने लगा कि यदि मैं इस्लाम और मुसलमानों की सहायता करने के लिए आगे न बढूं तो मुसलमानों के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न हो जाएंगे। मेरी दृष्टि में चार दिनों के सत्ता सुख की तुलना में यह ख़तरा अधिक हानिकारक था। एसी स्थिति में इन घटनाओं का मुक़ाबला करने और मुसलमानों की सहायता के लिए मैं उठ खड़ा हुआ। इस प्रकार असत्य मिट गया और इस्लामी समाज में शांति पुनः वापस आ गई।
अली इब्ने अबीतालिब ने अपने ज्ञान, महानता और बहुत सी अन्य योग्यताओं एवं विशेषताओं के बावजूद, अपने उस वैध अधिकार को अनदेखा कर दिया, जिनकी ओर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कई बार संकेत किया था, और जानते हुए उन्होंने एसे मार्ग का चयन किया जो उनके तथा उनके परिवार के लिए घाटे का कारण बना। एसी विषम परिस्थितियों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का महान व्यक्तित्व अधिक स्पष्ट हुआ। एसी स्थिति में बहुत से लोग जिनकी नियत ठीक नहीं थी हज़रत अली को अपने वैध अधिकारों के लिए युद्ध करने पर प्रेरित कर रहे थे। एसे में अबूलहब के एक पुत्र ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की प्रशंसा और उनके विरोधियों की निंदा में कविता पढ़ना आरंभ की जो एक प्रकार से लोगों को उकसाने की चाल थी। इस परिस्थिति को देखकर हज़रत अली ने कहा था कि मेरे लिए यह बात सबसे महत्वपूर्ण है कि इस्लाम के आधार सुरक्षित रहें।
इसी प्रकार दूसरे ख़लीफ़ा उमर बिन ख़त्ताब ने जब इस बात का आभास किया कि उनकी मृत्यु निकट है तो उन्होंने अपने बाद वाले ख़लीफ़ा के निर्धारण का निर्णय किया। इस बारे में उन्होंने कहा कि अबूबक्र का चयन मोमिनों के सलाह-मश्वरे से नहीं हुआ था किंतु अबसे ख़लीफ़ा का चयन मोमिनों के विचार-विमर्श से किया जाएगा। इस आधार पर उन्होंने छह लोगों की एक परिषद का चयन किया और यह आदेश दिया कि यह छह लोग आपस में विचार-विमर्श करेंगे और तीन दिनों के भीतर अपने बीच से आगामी ख़लीफ़ा का निर्धारण करेंगे अन्यथा उनकी हत्या कर दी जाएगी। जिन छह लोगों का उन्होंने नाम प्रस्तुत किया था वे इस प्रकार थेः- उस्मान,तल्हा, ज़ुबैर, सअद बिन अबी वेक़ास, अब्दुर्रहमान बिन औफ़ और अली इब्ने अबी तालिब। किंतु इस परिषद के क्रियाकलापों का परिणाम पूर्ण रूप से स्पष्ट था और वह हज़रत अली के विरुद्ध था। इस बीच पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास ने हज़रत अली से अनुरोध किया था कि वे परिषद की बैठक में भाग न लें किंतु हज़रत अली ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जबकि वे परिणाम के बरे में अब्बास के दृष्टिकोण की पुष्टि करते थे।
हज़रत अली ने कहा कि मैं मतभेद पसंद नहीं करता हूं। इसपर अब्बास ने कहा कि आपको उसी बात का सामना करना होगा जो आप पसंद नहीं करते। जैसा की सोचा जा रहा था परिषद ने उस्मान बिन अफ़ान को नए ख़लीफ़ा के रूप में चुना। इस चुनाव के पश्चात हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा था कि तुम स्वयं जानते हो कि तुम लोगों में ख़िलाफ़त के लिए मैं सबसे अधिक सक्षम और योग्य हूं किंतु ईश्वर की सौगंध जबतक मुसलमानों के कार्य सुचारू रूप से चलते रहें और उसके बदले में केवल मेरे ऊपर अत्याचार होता रहे तो मैं विरोध नहीं करूंगा।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अन्तिम समय तक मुसलमानों के बीच एकता पर बल देते रहे। वर्षो बाद अपने सत्ताकाल के दौरान भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मतभेदों से बचने के प्रयास किये और इस्लाम के आरंभिक काल के दो महत्वपूर्ण लोगों तल्हा तथा ज़ुबैर की ओर से बैअत अर्थात आज्ञापालन के प्रति कटिबद्ध न रहने और युद्ध भड़काने के प्रयासों के बावजूद हज़रत अली अलैहिस्सलाम यथासंभव युद्ध आरंभ करने से बचते रहे। इस युद्ध में तल्हा और ज़ुबैर के क्रियाकलापों के बारे में वे कहते हैं कि मुसलमानों के बीच मतभेदों से बचने के लिए मैंने अपने वैध अधिकार को भी अनदेखा किया किंतु इन लोगों ने स्वेच्छा से मेरी बैअत की थी और बाद में उन्होंने स्वयं इसका उल्लंघन किया तथा मुसलमानों के मध्य मतभेदों की कोई चिंता नहीं की। तल्हा और ज़ुबैर ने मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न होने की चितां किये बिना ही यह कार्य किया। उन्होंने कहा कि उचित यह होता कि यह दोनों कुछ समय धैर्य करते और मेरी सरकार के कार्यों को देखते और उसके पश्चात अपना निर्णय लेते। जबकि उन्होंने धैर्य से काम नहीं लिया और मेरे विरुद्ध विद्रोह किया। तल्हा और ज़ुबैर ने उस अधिकार के बारे में मुझसे मतभेद किया जिसका अधिकार ईश्वर ने उन्हें दिया ही नहीं था।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस के अवसर पर पुनः बधाई देते हुए बात को उन्हीं के एक कथन से समाप्त करते हैं। इमाम अली अलैहिस्सलाम का मानना था कि आपसी मतभेदों से दूर रहने में ही किसी राष्ट्र की एकता, संभव है। इस बारे में वे कहते हैं कि निश्चित रूप से अबतक कोई भी राष्ट्र विशेष आकांक्षाओं पर एकजुट नहीं हो सका मगर इस दशा में कि वह सशक्त हुआ और उसका परस्पर सहयोग सुदृढ़ हुआ और किसी राष्ट्र को शक्ति और सम्मान नहीं मिला परन्तु इस स्थिति में कि ईश्वर ने उससे समस्याओं को हटा लिया और अपमान को उससे दूर कर दिया और उसका मार्गदर्शन, धर्म की निशानियों की ओर किया।