अशाइरा सम्प्रदाय

अशाइरा, अबुल हसन अशअरी (260-324 हिजरी) के मानने वालों को कहते हैं। अबुल हसन अशअरी ने अक़्ल

(बुद्धी) से काम लेने में तफरीत से काम लेते हुए दरमियान का एक तीसरा रास्ता चुना है। दूसरी सदी हिजरी के दौरान इन दोनों फिकरी मकतबों नें बहुत ज़्यादा शोहरत हासिल की। मोअतज़ला अक़ाइद के लिए अक़्ल को एक मुस्तक़िल माखज़ (स्त्रोत) समझते थे और इसके ज़रिए इस्लाम की रक्षा करने की ताकीद (पुष्टि) करते थे और इसको प्रयोग करने में इफरात से काम लेते थे। दूसरी तरफ अहले हदीस, अक़्ल से हर तरह के काम को मना करते थे और क़ुरआन व सुन्नत के ज़ाहिर (प्रकट) को बग़ैर किसी फिकरी तहलील के उसके दीनी तालीमात में मिलाक व मेयार के उनवान से क़बूल करते थे। अशअरी मज़हब नें चौथी सदी के शुरूअ में अहले हदीस के अक़ाइद से रक्षा और अमली तौर पर इन दोनों मकतबों की तादील के उनवान से अक़्ल और नक़्ल के मुआफिक़ एक मोअतदिल रास्ता इख्तियार किया।  

अबुल हसन अली इब्ने इस्माईल अशअरी अपनी जवानी में मोअतज़ला के अक़ाइद से वाबस्ता थे उन्होंने उनके उसूले अक़ाइद को उस वक़्त के मशहूर उस्ताद अबू अली जुब्बाई (देहान्त 33 हि.) से हासिल किए और चालीस साल की उम्र तकमोअतज़ला का समर्थन करते रहे और इसी विषय (Subject) से संबन्धित बहुत सी किताबें भी लिखीं। इसी दौरान उन्होंने इस मज़हब से दूरी कर ली और मोअतज़ला के मुक़ाबिल में अहले हदीस के मुताबिक़ कुछ नज़रियात (दृष्टिकोण) पेश किए। अशअरी एक तरफ तो दूसरों के माखज़ (स्त्रोत) को किताब व सुन्नत बताते थे और इस वजह से मोअतज़ला का विरोध करते थे और अहले हदीस हो गए। लेकिन अस्हाबे हदीस के बर खिलाफ दीनी अक़ाइद से दिफा और उसको साबित करने के लिए बहस व इस्तेदलाल को जाएज़ समझते थे और अमली तौर पर इसका उपयोग करते थे। इसी ग़रज़ से उन्होंने एक किताब (रिसालतुन फी इस्तेहसानिल ख़ौज़ फी इल्मिल कलाम) लिखी और इसमें इल्मे कलाम का समर्थन किया। अशअरी नें नक़्ल को असालत देने के साथ साथ अक़्ल को साबित करने और दिफा करने के लिए क़बूल कर लिया। वह आरंभ में मोअतज़ला के नज़रियात को बातिल (भंग) करने की ज़िम्मेदारी समझते थे लेकिन उन्होंने मोअतज़ला के अक़ाइद से जंग करते हुए अहले हदीस के अक़्ली तरीक़े को साबित किया और उनके नज़रियात (दृष्टिकोण) को एक हद तक मोअतज़ला के नज़रियात (दृष्टिकोण) से नज़दीक कर दिया।

 

अशअरी के नज़रियात (दृष्टिकोण) :

 

इस जगह पर कोशिश करेंगे कि अशअरी के तरीक़े के नतीजे को उनके कुछ अक़ाइद में ज़ाहिर (प्रकट) करें। इस वजह से उसके अक़ीदे को अस्हाबे हदीस और मोअतज़ला के अक़ाइद को इजमाल (संक्षिप्त) के साथ एक दूसरे से मुक़ाबला करेंगे।

 

(1)सिफाते ख़बरी: इल्मे कलाम में कभी कभी सिफाते इलाही को सिफाते ज़ातिया और सिफाते ख़बरिया में बाँटते हैं। सिफाते ज़ातिया से मुराद वह सिफात हैं जो आयात व रिवायात में बयान हुई हैं और अक़्ल खुद व खुद इन सिफात को खुदा के लिए साबित करती है जैसे खुदा के लिए हाथ, पैर और चेहरे का होना, इस तरह की सिफात के मुतअल्लिक़ मुतकल्लेमीन के दरमियान इख्तिलाफ (विभेद) है।

 

अहले हदीस का एक गुरूप जिसको मुशब्बहा हशविया कहते हैं, यह सिफाते ख़बरिया को तशबीह (उपमा) के साथ खुदा वंदे आलम के लिए साबित (सिद्ध) करते हैं। यह लोग इस बात के मोअतक़िद हैं कि खुदा में सिफाते ख़बरिया उसी तरह पाई जाती है जिस तरह मखलूक़ात में पाई जाती हैं और इस जहत से ख़ालिक़ (खुदा) और मखलूक़ के दरमियान बहुत ज़्यादा शबाहत पाई जाती है। शहरिस्तानी नें इस गुरुप के कुछ लोगों से नक़्ल किया है कि उनका अक़ीदा यह है कि खुदा को लम्स (स्पर्श) किया जा सकता है और उससे हाथ और गले मिला जा सकता है।

 

अहले हदीस में से कुछ लोग सिफाते ख़बरिया के मुतअल्लिक़ तफवीज़ (प्रदान) के मोअतक़िद हैं। यह लोग सिफाते ख़बरिया को खुदा से मंसूब करते हैं और उन अलफाज़ (Words)के मफहूम और मफाद के सम्बंध में हर तरह का नज़रिया (दृष्टिकोण) पेश करने से दूरी करते हैं और उसके मअना (Meaning)को खुदा पर छोड़ देते हैं। मालिक इब्ने अनस का खुदा के आसमान (अर्श) पर होने की कैफियत के मुतअल्लिक़ सवाल के जवाब से उनका नज़रिया (दृष्टिकोण) मालूम हो जाता है। लेकिन मोअतज़ला, खुदा को मख़लूक़ात से मुशाबेह होने से पाक और दूर समझते हैं और खुदा के हाथ और पैर रखने वाली सिफात को जाइज़ नही समझते हैं। दूसरी तरफ क़ुरआन और रिवायात में इस तरह की सिफात की खुदा से निस्बत दी गई है। मोअतज़ला नें इस मुश्किल को हल करने के लिए सिफाते ख़बरिया की तौजीह (स्पष्टीकरण) व तावील (अर्थापन) करना आरंभ कर दिया और यदूल्लाह (खुदा के हाथ) की खुदा की क़ुदरत से ताबीर व तफसीर करने लगे।

 

अशअरी , सिफाते ख़बरिया को साबित (सिद्ध) करने में एक तरफ तो असहाब हदीस के नज़रिए को क़बूल कर लिया और दूसरी तरफ बिला तशबीह और बिला तकलीफ की क़ैद को इसमें बढ़ा दिया। वह कहते हैं :यक़ीनन खुदा के दो हाथ हैं लेकिन खुदा के हाथ की कोई कैफियत नहीं है जैसा कि खुदा फरमाता हैः हल यदाहो मबसूततान सूरए माइदाः64 ”

 

(2)जब्र और इख्तियारः अहले हदीस ने खुदा की कज़ा और कद्र पर एतिक़ाद रखने और अमली तौर पर इस एतिक़ाद को इंसान के इख्तियार के साथ जमा करने की ताक़त न रखने की वजह से वह इंसान के लिए उसके अफआल में कोई किरदार अदा नही कर सके, इस वजह से वह नज़रिए जब्र में गिरफ्तार हो गए। यह बात इब्ने हम्बल के एतिक़ादनामे में ज़िक्र हुए एतिक़ाद से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। जबकि मोअतज़ला इंसान के इख्तियारी अफआल में उसकी मुतलक़ आज़ादी के क़ाइल हैं और कज़ा व कद्र और खुदा के इरादे के लिए इस तरह के अफआल में किसी नज़रिए के क़ाइल नही हैं।

 

अशअरी का नज़रिया यह था कि न सिर्फ कज़ा और कद्रे इलाही आम है बल्कि इंसान के इख्तियारी अफआल को भी खुदा ईजाद और खल्क़ करता है दूसरी तरफ उसने कोशिश की कि इंसान के इख्तियारी अफआल के लिए कोई किरदार पेश करे। उन्होनें इस किरदार को नज़रिए कस्ब के क़ालिब में बयान किया। अशअरी का यह नज़रिया बहुत ही अहम और पेचीदा है इस लिए हम इसको यहाँ तफसील (विस्तार) से बयान करते हैं कस्ब एक क़ुरआनी शब्द है और विभिन्न आयात में इस शब्द और इससे बनने वाली दूसरी चीज़ों (मुशतक़्क़ात) को इंसान की तरफ निस्बत दी गई है। कुछ मुतकल्लेमीन जैसे अशअरी नें अपने नज़रियात को बयान करने के लिए इस शब्द से फायदा उठाया है। उन्होनें कस्ब के विशेष अर्थ बयान करने के बीच इसको अपने नज़रिए जब्र और इख्तियार और इंसान के इख्तियारी अफआल की तोसीफ पर मिलाक क़रार दिया है। अगरचे अशअरी से पहले दूसरे मुतकल्लेमीन नें भी इससे संबन्धित बहुत कुछ बयान किया है। लेकिन अशअरी के बाद, कस्ब का शब्द उनके नाम से इस तरह जुड़ गया है कि जब भी कस्ब या नज़रिए कस्ब की तरफ इशारा होता है तो बे-इख्तियार अशअरी का नाम ज़बान पर आ जाता है।

 

उनके बाद अशअरी मसलक के मुतकल्लेमीन ने अशअरी के बयान किए हुए नज़रिए से इख्तिलाफ के साथ अपनी खास तफसीर को बयान किया है। यहां पर हम नज़रिए कस्ब को अशअरी की तफसीर के साथ बयान करेंगे। उनके नज़रियात यह हैं :

 

A.क़ुदरत की दो क़िस्में हैं: एक क़ुदरते क़दीम (पुरानी क़ुदरत) जो खुदा से मखसूस (विशेष) है और फेअल के खल्क़ और ईजाद करने में प्रभावशाली है। औऱ दूसरी क़िस्म क़ुदरते हादिस है जो फेअल को ईजाद करने में प्रभावशाली नही है और इसका फायदा यह है कि साहिबे क़ुदरत अपने अंदर आज़ादी और इख्तियार का एहसास करता है और गुमान करता है कि वह किसी काम को अंजाम देने की क़ुदरत रखता है।

 

B.इंसान का फेअल, खुदा की मख़लूक़ है: अशअरी के लिए यह एक क़ाइदए कुल्ली है कि खुदा के इलावा कोई खालिक़ नही है सभी चीज़ें, उनमें से इंसान के तमाम अफआल खुदा की मखलूक़ हैं। वह स्पष्ट करते हैं कि अफआल का हक़ीक़ी (वास्तविक) फाएल (कारक) खुदा है। क़्यों कि खिलक़त (जन्म) में सिर्फ क़ुदरते क़दीम मुअस्सिर (प्रभावशाली) है और यह क़ुदरत केवल खुदा के लिए है।

 

C.इंसान का किरदार, फेअल को कस्ब करना है खुदा इंसान के अफआल को खल्क़ करता है और इंसान खुदा के खल्क़ किए हुए अफआल हासिल करता है।

 

D.कस्ब यानि खलक़े फेअल का इंसान में क़ुदरते हादिस के खल्क़ होने के साथ मक़ारिन होना। अशअरी खुद लिखते हैं: मेरे नज़दीक हक़ीक़त यह है कि इक्तिसाब और कस्ब करने के मानी फेअल का क़ूव्वते हादिस के साथ औरएक ही समय वाक़ेअ होना है। इस लिए फेअल को कस्ब करने वाला वह है जिसमें फेअल क़ुदरत (हादिस) के साथ ईजाद हुआ हो। मिसाल के तौर पर जब हम कहते हैं कि कोई रास्ता चल रहा है या वह रास्ता चलने को कस्ब कर रहा है, यानि खुदा इस शख्स में रास्ता चलने को ईजाद करने के साथ साथ उसके अंदर क़ुदरते हादिस भी ईजाद कर रहा है जिसके ज़रिए इंसान यह एहसास करे कि वह अपने फेअल को अपने इख्तियार से अंजाम दे रहा है।

 

E.इस नज़रिए में फेअल इख्तियारी और ग़ैर इख्तियारी में फर्क़ यह है कि फेअल इख्तियारी में चूँकि फेअल अंजाम देते वक़्त इंसान में क़ुदरत हादिस होती है तो वह आज़ादी का एहसास करता है लेकिन ग़ैर इख्तियारी फेअल में चूँकि इसमें ऐसी क़ुदरत नहीं है वह जब्र और ज़रूरत का एहसास करता है।

 

F.अगरचे इंसान फेअल को कस्ब करता है लेकिन यही कस्ब खुदा की मखलूक़ भी है। इस बात की दलील अशअरी के नज़रिए से बिल्कुल स्पष्ट है क़्यों कि प्रथम बीते हुए क़ाइदे और क़ानून के मुताबिक़ हर चीज़, उनमें से कस्ब, खुदा की ईजाद की हुई है। द्दितीय कस्ब का अर्थ इंसान में हादिसे क़ुदरत और फेअल के मक़ारिन होने के साथ हैं और चुँकि फेअल और क़ुदरते हादिस को खुदा ख़ल्क़ करता है इस लिए दोनों की मक़ारिनत भी उसी की खल्क़ की हुई होगी। अशअरी नें इस मतलब को बयान करते हुए क़ुरआन मजीद की आयात से मदद ली है वह कहते हैं : अगर कोई सवाल करे कि तुम यह क़्यों सोचते हो कि बंदों के कस्ब खुदा की मखलूक़ है तो हम उससे कहेंगे कि क़्यों कि क़ुरआन नें फरमाया है :(खुदा नें तुम्हें और जो कुछ तुम अमल करते हो, खल्क़ किया है) (सूरए साफात – 96)

 

G.यहाँ पर जो सवाल बयान होता है वह यह है कि अगर कस्ब खुदा की मखलूक़ है तो फिर इसको इंसान की तरफ क़्यों निस्बत देते हैं और कहते हैं कि इंसान का अमल है।

 

उसके जवाब में अशअरी मोअतक़िद हैं कि मुकतसिब और कासिब होने की मेअयार, कस्ब करने की जगह है न कि कस्ब को ईजाद करना। मिसाल के तौर पर जिस चीज़ में हरकत ने हुलूल किया है उसको मुतहर्रिक कहते हैं। यहाँ पर भी इंसान, कस्ब कर रहा है इस लिए उसको मुकतसिब कहते हैं।

 

नतीजा यह हुआ कि खुदा की सुन्नत इस बात पर बरक़रार है कि जब इंसान से इख्तियारी फेअल सादिर होता है तो खुदा उसी वक़्त क़ुदरते हादिस को भी इंसान में खल्क़ कर देता है और इंसान सिर्फ फेअल और क़ुदरते हादिस की जगह है यानि फेअल और क़ुदरत हादिस के मक़ारिन होने की जगह है । इस बिना पर अशअरी का नज़रिया इंसान के इख्तियारी फेअल से जब्र के इलावा कुछ नहीं है। अगरचे उन्होंने बहुत ज़्यादा कोशिश की है ताकि वह इंसान के लिए हाथ और पैर का किरदार अदा करें लेकिन आखिरकार वह उसी रास्ते की तरफ गामज़न हो गए जिस पर अक्सर अहले हदीस और जब्र के क़ाइल लोग गामज़न हैं।

 

(3)कलामे खुदा: अहले हदीस मोअतक़िद हैं कि खुदा का कलाम वही आवाज़ (सौत) और शब्द हैं जो खुदा की ज़ात से क़ाइम हैं और क़दीम हैं।

 

उन्होंने इस विषय में इस क़दर मुबालेग़े (अतिशयोक्ति) से काम लिया है कि कुछ लोगों नें इसकी जिल्द और क़ुरआन के कागज़ को भी क़दीम समझ लिया।

 

मोअतज़ला भी कलामे खुदा को आवाज़ (सौत) और शब्द (हुरूफ) समझते हैं लेकिन उनको खुदा की ज़ात से क़ाइम नही समझते और उनका अक़ीदा है कि खुदा अपने कलाम को लौहे महफूज़ या जिबरईल या पैग़म्बर अकरम (स) में खल्क़ करता है और इस वजह से खुदा कलाम हादिस है।

 

अशअरी नें बीच का रास्ता इख्तियार करने के लिए कलाम को दो क़िस्मों (भागों) मे बाँट दिया है: पहली क़िस्म वही लफ्ज़ी कलाम है जो शब्दों और आवाज़ के ज़रिए बनती है। इससे मुतअल्लिक़ उन्होंने मोअतज़ला की बात को क़ुबूल करते हुए कलामे लफ्ज़ी को हादिस जाना है। लेकिन दूसरी क़िस्म कलामे नफसी है इस क़िस्म में अहले हदीस की तरह कलामे खुदा को क़ाइम बेज़ात और क़दीम जाना है।

 

हक़ीक़ी कलाम वही कलामे नफसी है जो क़ाइम बेज़ाते खुद है और शब्दों के ज़रिए बयान होता है। कलामे नफसी वाहिद और नामोअतबर है। जबकि कलामे लफज़ी बदलाव के क़ाबिल है। कलामे नफसी को मुख्तलिफ इबारात के साथ बयान किया जा सकता है।

 

(4)रोअयते खुदा (खुदा का दिखना) : अहले हदीस का एक गुरूप जो मुशब्बहे हशविया के नाम से मशहूर है इस बात का अक़ीदा रखते हैं कि खुदा को आँखों से देखा जा सकता है। लेकिन मोअतज़ला हर तरह की रोअयते खुदा से इनकार करते हैं। अशअरी यहाँ पर बीच का रास्ता निकाला है ताकि इफरात और तफरीत से बचे रहें। उनका अक़ीदा यह है कि खुदा दिखाई देता है लेकिन खुदा को दूसरी चीज़ों की तरह नहीं देखा जा सकता है। उनकी नज़र में रोअयते खुदा, मखलूक़ात से मुशाबेह नही है। इससे मुतअल्लिक़ एक शारेह नें लिखा हैः अशाइरा का अक़ीदा है कि खुदा जिस्म नही रखता और वह किसी तरफ में नही है इस बिना पर उसका चेहरा और हदक़ा वग़ैरह नही है लेकिन इसके बावजूद वह चौदहवीं रात की तरह अपने बंदों पर ज़ाहिर हो सकता है और दिखाई दे सकता है जैसा कि सही हदीसों में वारिद हुआ है । अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ताकीद करते हैं किः हमारी दलील अक़्ली और नक़्ली दोनों है लेकिन इस मसअले में अस्ल नक़्ल है।

 

अशाइरा की दलीले अक़्ली जो दलीलूल वजूद के नाम से मशहूर है यह है कि जो चीज़ भी मौजूद है दिखाई देगी मगर यह कि कोई वजूद में आने में रूकावट हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि किसी वजूद का होना उसके रोअयत (दिखने) का तक़ाज़ा करता है इस बिना पर चूँकि खुदा मौजूद है और उसके दिखाई देने का लाज़िमए अम्र मुहाल नही है इस लिए रोअयते खुदा अक़्ली तौर पर मुम्किन है।

 

(5)हुस्न व क़ुब्हे अक़्ली : मोअतज़ला का अक़ीदा है कि अफआल में हुस्न व क़ुब्हे ज़ाती पाया जाता है और अक़्ल भी (कम से कम कुछ जगहों में) उसके हुस्न व क़ुब्ह को जानने पर क़ादिर है बल्कि उसूली तौर पर तो यह अफआल के हुस्न व क़ुब्हे वाक़ई से इनकार करते हैं। शरहे मुआक़िफ के लेखक इसके बारे में लिखते हैं: हमारे (यानि अशाइरा के) नज़दीक क़बीह यह है कि नहई तहरीमी या तनज़ीही वाक़ेअ हो और हुस्न यह है कि उससे नहई न हुई हो जैसे वाजिब, मुस्तहब और मुबाह। और खुदा के अफआल हुस्न हैं । इसी तरह निज़ाअ के बयान के वक़्त हुस्न और क़ुब्ह के तीन मअना (Meaning)करते हैं:

 

(a)कमाल व नक़्ज़ : जिस वक़्त कहा जाता है इल्म (ज्ञान) हुस्न है और जहल (अज्ञानता) क़बीह है, तो हुस्न व क़ुब्ह के यही मअना मुराद होते हैं और इसमे कोई इख्तिलाफ नही है कि हुस्न व क़ुब्ह के यह मअना सिफाते फी नफसे में साबित हैं और अक़्ल उसको दर्क करती है और शरियत से उसका कोई राबिता नही है।

 

(b)ग़रज़ से मुलाइम और मुनाफिर होना : इस मअना में जो भी ग़रज़ और मुराद से मुआफिक़ है वह हुस्न है और जो भी मुखालिफ हो वह क़बीह है और जो ऐसा न हो वह न हुस्न है और न क़बीह है। इन दोनों मअनों को कभी मसलहत और कभी मफसदा से ताबीर करते हैं। इस मअना में भी हुस्न व क़ुब्ह एक अक़्ली अम्र है और ग़रज़ व एतिबार की वजह से बदल जाते हैं। जैसे किसी का क़त्ल हो जाना उसके दूश्मनों के लिए मसलहत है और उनके हदफ के मुआफिक़ है लेकिन उसके दोस्तों के लिहाज़ से मफसदा है इस बिना पर इस मअना में हुस्न व क़ुब्ह के मअना इज़ाफी और निस्बी हैं, हक़ीक़ी नहीं हैं।

 

(c)मदह का मुसतहक़ होना : मुतकल्लेमीन के दरमियान जिस मअना में इख्तिलाफ हुआ है वह यही तीसरा मअना है, अशाइरा हुस्न व क़ुब्ह को शरई समझते हैं क़्यो कि इस लिहाज़ से तमाम अफआल माद्दी हैं और कोई भी फेअल खुद ब खुद मदह व ज़म व या सवाब या एक़ाब का तक़ाज़ा नही करता है और सिर्फ शारेअ की अम्र और नहई की वजह से ऐसी खुसुसियत पैदा हो जाती है। लेकिन मोअतज़ला के नज़रियात के मुताबिक़ यह मअना भी अक़्ली हैं क़्यों कि फेअल खुद ब खुद शरियत को नज़र अंदाज़ करते हुए या हुस्न हैं जिसकी वजह से इस फेअल का फाएल मदह और सवाब का मुसतहक़ है, या क़बीह है जिसकी वजह से इस फेअल का फाएल एक़ाब और बुराई का मुसतहक़ है।

 

(6)तकलीफे मा ला योताक़ : तकलीफे मा ला योताक़ के मअना यह हैं कि खुदा अपने बंदो को ऐसे फेअल को अंजाम देने को कहे जिसको अंजाम देने पर वह क़ादिर न हो। सवाल यह पैदा होता है कि क़्या इंसान को ऐसी तकलीफ देना जाइज़ है? और इसके अंजाम न देने पर एक़ाब करना जाएज़ है ? यह बात स्पष्ट है कि इस मसअले में फैसला करने के लिए मसअल-ए- हुस्न व क़ुब्ह की तरफ रूख करना पड़ेगा। मोअतज़ला चूँकि हुस्न व क़ुब्ह को अक़्ली समझते हैं इस लिए वह इस तरह की तकलीफ को क़बीह और मुहाल समझते हैं और खुदा की तरफ से ऐसी तकलीफ के जारी होने को जाएज़ नही समझते हैं। लेकिन अशाइरा चूँकि हुस्न व क़ुब्ह के अक़्ली होने पर एतिक़ाद नही रखते और किसी चीज़ को खुदा पर वाजिब नही समझते हैं इस लिए उनका नज़रिया है कि खुदा हर काम उनमें से तकलीफे मा ला योताक़ को भी अंजाम दे सकता है और उसकी तरफ से जो अमल भी सादिर हो वह अमल नेक है।

अशअरी मज़हब का इस्तिमरार (निरंतरता):

अबुल हसन अशअरी के मज़हब को बहुत मुश्किलात का सामना करना पड़ा। शुरू में अहले सुन्नत के आलिमों नें उनके नज़रियात को क़ुबूल नही किया और हर जगह उनकी बहुत ज़्यादा मुखालिफत हुई। लेकिन अमली तौर पर इन मुखालिफतों का कोई फायदा न हुआ और अशअरी मज़हब धीरे धीरे अहले सुन्नत की फिक्रों पर ग़ालिब आता गया। अबुल हसन अशअरी के बाद सबसे पहली शख्सियत जिसने इस मज़हब को आगे बढ़ाया वह अबुबक्र बाक़िलानी (देहान्त-403 हि.) हैं। उन्होंने अबुल हसन अशअरी के नज़रियात को जो कि दो किताबों अलइबाना और वल्लुमअ में मुख्तसर तौर से मौजूद थे, उनकी अच्छी शरह की और उनको एक कलामी निज़ाम की शक्ल में पेश किया।

 

लेकिन अशअरी मज़हब को सबसे ज़्यादा इमामुल हरमैन जुवैनी (देहान्त-478 हि.) ने आगे बढ़ाया। ख्वाजा निज़ामुल मुल्क नें बग़दाद में मदरस-ए-निज़ामिया स्थापित करने के बाद सन 459 हि. में जुवैनी को तदरीस (Teaching) के लिए वहाँ बुलाया। जुवैनी ने लगभग तीस साल तक अशअरी मज़हब की तरवीज की और चूँकि यह शैखुल इस्लाम और मक्का व मदीना के इमाम थे इस लिए उनके नज़रियात को पूरी इस्लामी दुनियाँ में इहतिराम की नज़रों से देखा जाता था। जुवैनी के इल्मी आसार के ज़रिए अशअरी मज़हब बहुत ज़्यादा फैला यहाँ तक कि अहले सुन्नत के दरमियान उनके कलाम को तरजीह दी जाने लगी।

जुवैनी ने अशअरी के नज़रियात को अक़्ली और इस्तेदलाली रंग दिया और इमाम फख़्रे राज़ी (देहान्त-606 हि.) ने अशअरी मज़हब को अमली तौर पर फलसफी रंग दिया। इमाम फख़्रे राज़ी ने अशअरी के मज़हब से दिफाअ और उनके मज़हब को साबित करने के साथ साथ इब्ने सीना के फलसफी नज़रियात पर इंतिक़ाद किया। दूसरी तरफ इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली (देहान्त-505 हि.) जो कि जुवैनी के शागिर्द थे, ने तसव्वुफ को इख्तियार कर लिया और अशअरी के नज़रियात की इरफानी तफसीर पेश की। आपने एक अहम किताब अहयाउल-उलूम लिख कर तसव्वुफ और अहले सुन्नत के दरमियान एक राबिता क़ाइम कर दिया। (http://www.taqrib.info/hindi)