आख़री बार
आख़री बार
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एक बढ़ई जो बूढ़ा हो चुका था और अब काम छोड़कर घर में आराम करना चाहता था। कम्पनी के मालिक के पास आया और बोला: मैं अब काम छोड़ना चाहता हूँ अगर आप आज्ञा दें तो मैं घर पर अपने बीवी बच्चों के साथ ज़िन्दगी के आख़िरी पल गुज़ारूँ। वह एक अच्छा बढ़ई था इसलिये कम्पनी का मालिक नहीं चाहता था कि वह काम छोड़ दे लेकिन वह उसे मजबूर भी नहीं कर सकता था इस लिये उसनें बढ़ई को रिटायरमेंट की परमीशन दे दी लेकिन उससे निवेदन किया कि बस आख़री बार लकड़ी का एक घर बना दे और उसके बाद जहाँ जाना चाहे चला जाए। बढ़ई नें उसकी बात मान ली और घर बनाना शुरू कर दिया लेकिन क्योंकि काम में उसका दिल नहीं लग रहा था और उसे यह भी पता था कि अब उसे इस कम्पनी में नहीं रहना है इसलिये उस घर के लिये बहुत कमज़ोर और नाकारा लकड़ियों का इस्तेमाल किया और पूरी लगन से काम नहीं किया। जब घर बन कर तैयार हो गया और कम्पनी का मालिक घर को देखने आया तो उसनें घर की चाबी बढ़ई को थमाते हुए कहा: यह घर मेरी तरफ़ से तुम्हारे लिये एक छोटा सा उपहार है।” यह सुनकर बूढ़ा बढ़ई बहुत पछताया कि काश मैंने यह घर पूरी मेहनत और लगन से बनाया होता और उसमें सबसे अच्छी क़िस्म की लकड़ी लगाई होती। यहाँ से हमें एक बात समझ में आती है कि हम जब भी ज़िन्दगी का आख़री काम करें तो वह ऐसा हो कि जो सबसे अच्छा, पूरा, ख़ूबसूरत और बेहतरीन हो। यह उसी समय हो सकता है जब हम उसे पूरी लगन, मेहनत और दिल के साथ करें और अगर ज़िन्दगी के हर महत्वपूर्ण काम को आख़री काम समझ कर करें तो बात ही कुछ और होगी। शायद इसी लिये हदीस में नमाज़ के सिलसिले में मिलता है कि इन्सान अपनी हर नमाज़ ऐसे पढ़े जैसे उसकी ज़िन्दगी की आख़री नमाज़ हो। http://www.wilayat.in/