इमाम हुसैन अ. का मक्के जाना

मदीने से इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के निकलने का कारण यह था कि यज़ीद ने मदीने के शासक वलीद इब्ने अतबा के नाम ख़त में हुक्म दिया था कि मेरे कुछ विरोधियों से (जिनमें से एक इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम भी थे) ज़रूर बैयत ली जाए   सवाल-2-  इमाम ह़ुसैन (अ स) ने मदीने से ही अपने आंदोलन को शुरू क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब समय और जगह के ह़ालात व परिस्थितियों की बारीकी से समीक्षा करने पर निर्भर है, जहाँ तक समय की बात है तो इमाम जिस समय मदीने में थे उस समय तक मुआविया के मरने का ऐलान नहीं हुआ था उसके अलावा आम लोग अभी यज़ीद और मुआविया की हुकूमत के अंतर को अच्छी तरह से महसूस नहीं कर पा रहे थे, इस लिए कि अगर इमाम ह़ुसैन, अबदुल्लाह बिन ज़ुबैर, अबदुल्लाह बिन उमर और अबदुर्रह़मान बिन अबी बकर जैसे लोगों के लिए यज़ीद का चेहरा एक शराबी तथा कुत्ते और बंदर से ख़ेलने वाले की ह़ैसियत से जाना पहचाना चेहरा था लेकिन अधिकतर लोग मुआविया और अमवी गुरूप के प्रोपगंडे और मुआविया की लालच और डराने की सियासत के नतीजे में यज़ीद की बैअत कर चुके थे। (अल-इमामः वस्सियासः जिल्द 1 पेज 161/164) रही बात जगह की तो मदीना आंदोलन करने और उठ खड़े होने के लिए उचित जगह नहीं थी, क्योंकिः 1. अगर मदीने वालों की संख्या को ख़ास कर अंसार को अहलेबैत अ. से मुह़ब्बत व अक़ीदत थी लेकिन यह मुह़ब्बत इतनी नहीं थी कि उनके लिए जान देने या कुछ और कर गुज़रने पर तय्यार हो जाते जैसे कि उन्होनें सक़ीफ़ा और उसके बाद की घटनाओं में ग़लती और कोताही का ख़ूब प्रदर्शन किया। यहाँ पर यह जानना दिलचस्प व रोमांचक होगा कि जिस समय ह़ज़रत अली (अ.स) नें नाकेसीन (बैअत तोड़ने वालों) की फ़ौज से मुक़ाबले के इरादे से मदीने वालों से मदद मांगी तो अधिकांश लोगों ने सकारात्मक जवाब नहीं दिया और आप मदीने के केवल चार सौ या सात सौ लोगों ही को लेकर दुश्मनों की कई हज़ार पर आधारित फ़ौज के मुक़ाबले पर जाने के लिए मजबूर हो जायें। ((2) (तारीख़े याक़ूबी, जिल्द 2, पेज 181) (3) मुरौव्वेजुज़्ज़हब जिल्द 2, पेज 395)। 2. पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के बाद मदीना अपने को शासक की सियासत के अधीन जानता था, इसी लिए शैख़ैन (अबू-बकर व उमर) की सियासत के अनुसरण की ह़ैसियत से उसे जाना जाता था। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की सुन्नत के साथ उन दो ह़ज़रात की सुन्नत की सुरक्षा के प्रति वहाँ बड़ी संवेदनशीलता पाई जाती थी, जैसा कि इस ग्रुप के प्रतिनिधि अबदुर्रह़मान इब्ने औफ़ ने ह़ज़रत उमर की काउंसिल के मुद्दे में हुकूमत ह़ज़रत अली के ह़वाले करने के लिए शेख़ैन की सीरत की पैरवी व अनुसरण को पूर्व शर्त के तौर पर रखा लेकिन आपने उसे क़बूल नहीं किया (तारीख़े याक़ूबी जिल्द, 3 पेज 162) और ह़ज़रत अली (अ स) तक ख़िलाफ़त पहुंचने में भी असली व मौलिक भूमिका मदीने वालों की नहीं थी बल्कि इस्लामी दुनिया के विभिन्न शहरों ख़ास कर कूफ़े के शरणार्थी लोग थे जिन्होनें आपकी ख़िलाफ़त पर ज़ोर दिया था। 3. क़ुरैश के विभिन्न क़बीलों की बड़ी संख्या ख़ास कर अमवी ग्रुप के मरवान व मरवान की संतानों जैसे लोगों का उस समय मदीने में बहुत असर व प्रभाव था और ज़ाहिर है कि यह लोग इमाम ह़ुसैन (अ.स) की हर कार्यवाही का सख़्ती से विरोध करते। 4. उस समय मदीने वालों की संख्या इतनी नहीं थी कि एक बड़े और नतीजे तक पहुंच जाने वाले इंक़ेलाब के लिए उन पर भरोसा किया जा सकता, ख़ास कर दूसरे बड़े शहरों जैसे कूफ़ा, बसरा और सीरिया के मुक़ाबले में उनकी संख्या बहुत कम थी। 5. पूरा इतिहास बताता है कि मदीने को किसी शक्तिशाली और सेट्रल हुकूमत के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए उचित जगह नहीं समझा जाता और उस शहर में होने वाले किसी इंक़ेलाब को पहले ही से पराजित मान लिया जाता था। इसलिए 63 हिजरी में ह़र्रा की घटना में यज़ीदी ह़ुकूमत के ख़िलाफ़ उसी शहर के लोगों के आंदोलन को आसानी से कुचल दिया गया। (अल-कामिल फ़ित्तारीख़ जिल्द2, पेज 593)। इसी तरह़ 145 हीजरी (1) में मुह़म्मद बिन अबदुल्लाह (जो नफ़से ज़कीया के नाम से मशहूर थे) जैसे दूसरे अलविओं का इंकेलाब और 169 हिजरी में शहीदे फ़ख़ के नाम से मशहूर ह़ुसैन इब्ने अली का इंक़ेलाब, मदीने वालों के बहुत कम मुक़ाबले का सामना करने के बाद आसीनी से पराजित हो गये। 6. अमवी हुकूमत के ज़माने में मदीने वालों का अतीत इस बात का सूचक था कि वह अमवी हुकूमत के मुक़ाबले में अहलेबैत अ. के समर्थन के लिए तय्यार नहीं थे, इसलिए कि मुआविया की तरफ़ से मिम्बरों से ह़ज़रत अली (अ.स) को गाली दिए जाने की सियासत के अंतर्गत वर्षों अमवी अधिकारी ह़ज़रत अली (अ.स) को बुरा भला कहते रहे और मदीने वालों के अधिकांश लोग उनके झूठ को जानते हुए, उस ग़लत सियासत पर गंभीर एतेराज़ को तय्यार नहीं थे बल्कि उस सियासत के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा अहलेबैत अ. ख़ास कर इमाम ह़ुसैन (अ.स) की तरफ़ से विरोध किए गए यहाँ तक कि आपके विरोध के बाद भी कोई आपकी मदद के लिए नहीं उठा। (अलकामिल फ़ित्तारीख़ जिल्द 3, पेज 562/563, तारीख़े याक़ूबी जिल्द 2, पेज 404/405, बेह़ारूल अनवार जिल्द 44, पेज 211) 7. अमवी शासक (वलीद बिन अतबा) का मदीने पर ठीक ठाक दबदबा था और वहां के हालात परपूरी तरह उसका कंट्रोल था और ऐसा नहीं था कि एक आंदोलन से हुकूमत की बागडोर उसके हाथ से निकल कर विरोधियों के हाथों में आ जाती। http://www.wilayat.in/