बंदगी

ख़ुदा वन्दे आलम ने अपनी किताब क़ुरआन मजीद में फ़रमाया हैः "हमने जिन व इन्स को अपनी इबादत के लिए पैदा किया है।" ताकि वह इसके ज़रिए यानी इबादत और बंदगी के ज़रिए ख़ुदा के क़रीब जो कि इंसानी कमाल की आख़िरी मंज़िल है, उस तक पहुँच सके। हम देखते हैं कि ख़ुदा ने क़ुरआन में जहाँ पर भी इबादत और बंदगी के बारे में बात की है वहाँ इंसान को "या उलिल अलबाब" जैसे बेहतरीन ख़िताब से नवाज़ा है इसकी वजह यह है कि ग़फ़लत के शिकार लोगों को उनकी अक़्ल और फ़ितरत की तरफ़ ध्यान दिलाया जाए और उनको यह बात याद दिलाई जाए कि अस्ली मंज़िल तक बंदगी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है, और ख़ुदा की क़ुरबत उसकी इबादत से ही मिल सकती है। यह बंदगी ख़ुदा की नज़र में इतनी अहम है कि जो नब्बुवत और रिसालत जैसे बुलंद मक़ाम और पोस्ट से भी कहीं ज़्यादा अज़ीम नज़र आती है जैसा कि हम सब जानते हैं कि जब ख़ुदा ने अपने हबीब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की मेराज का ज़िक्र किया तो इसी बंदगी लफ़्ज़ को इस्तेमाल किया और फ़रमायाः "पाक है वह ज़ात जिसने अपने बन्दे को सैर कराई।" इस से बढ़ कर ख़ुदा ने कलम-ए-शहादत में रिसालत जैसे अज़ीम मंसब से पहले बन्दगी को रख कर तमाम दुनिया वालों पर साफ़ तौर पर यह साबित कर दिया कि बन्दगी हर मक़ाम और पोस्ट से अफ़ज़ल है और इसके अफ़ज़ल होने की वजह यह है कि अगरचे इंसान ज़बान से बन्दगी का इक़रार कर लेता है मगर अमल के मैदान में पूरी तरह बन्दगी पर ख़रा उतरना बड़ा मुश्किल और दुश्वार है क्यो कि बन्दगी तक पहुँचने के लिए बहुत बड़े और सख़्त इम्तेहान से गुज़रना पड़ता है और अपना रास्ता सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात से जोड़ना पड़ता है और यह भी बन्दगी का करिश्मा ही है कि इंसान को नफ़सानी ख़्वाहिशों और दुनिया की पस्त व ज़लील ग़ुलामी से निजात दिला कर यह बन्दगी इंसान को अपने ख़ुदा से ख़ुज़ू व ख़ुशु जैसे अज़ीम रिश्ते को मज़बूत बनाते हुए उसे फ़ितरी आज़ादी के अज़ीम मुक़ाम तक पहुँचाती है। यहाँ पर इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि यह कोई अन-नेचुरल काम नहीं है जिसे हम यह कहकर टाल दें कि यह उन्हीं नबियों का काम था, हम उस मक़ाम तक हरगिज़ नहीं पहुँच सकते। ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में इर्शाद फ़रमाया किः "इंसान के लिए सिर्फ़ इतना ही है जितनी उसने कोशिश की है।" या यह कि ख़ुदावन्दे आलम ने दूसरी जगह इर्शाद फ़रमायाः "अल्लाह ताला किसी नफ़्स को उसकी कैपसिटी से ज़्यादा तकलीफ़ नहीं देता।" इससे पता चलता है कि हर इंसान की अक़्ली और शरई एतेबार से यह ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी सलाहियत के हिसाब से इस अज़ीम मक़ाम तक पहुँचने की कोशिश करे क्योंकि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपनी हिक्मत और अदालत की वजह से अम्बिया (अ.) व आइम्मा (अ.) से उनकी हैसियत और ताक़त के मुताबिक़ बन्दगी चाही है और एक आम इंसान से उनकी सलाहियत के मुताबिक़, और हम देखते हैं कि आइम्मा-ए-ताहेरीन (अ.) के अलावा भी बहुत से ऐसे ख़ुदा के बंदे गुज़रे हैं जो अपनी हैसियत के हिसाब से बन्दगी के बहतरीन और ऊँचे दर्जों तक पहुँचे हैं। www.wilayat.in