लाउडस्पीकर का ज़ालिमाना इस्तेमाल

ज़ुल्म सिर्फ़ यह नहीं है कि किसी का माल छीन लिया जाए या उसे कोई ज़िस्मानी तकलीफ़ पहुँचा दी जाए बल्कि अरबी ज़बान में ज़ुल्म, किसी भी चीज़ को बेजगह इस्तेमाल करने को कहते हैं क्योंकि किसी चीज़ का बेमहल और ग़लत इस्तेमाल यक़ीनन किसी न किसी को तकलीफ़ पहुँचाने की वजह बनता है इसलिए हर ऐसा इस्तेमाल ज़ुल्म कहलाता है। अगर किसी को इस से तकलीफ़ पहुँचे तो यह शरई एतेबार से गुनाह है लेकिन हमारे समाज में इस तरह के बहुत से गुनाह अच्छी तरह रिवाज पाए हुए हैं कि अब आमतौर से उनके गुनाह होने का एहसास भी बाक़ी नहीं रहा। तकलीफ़ पहुँचने वाली इन बेशुमार सूरतों में से एक इन्तेहाई तकलीफ़ देने वाली सूरत लाउडस्पीकर का ज़ालिमाना इस्तेमाल है। कुछ मज़हबी तक़रीरों, मजलिसों और शादी-ब्याह में रात भर लाउडस्पीकर का इस्तेमाल होता है जिस से आप पास रहने वाले लोग बेचैनी के आलम में करवटें बदलते रहते हैं और किसी को भी इस बात की ज़रा सी भी परवाह नहीं होती कि बूढ़ों और बीमारों पर इसका क्या असर हो रहा है। गाने-बजाने का मामला अलग है इसको तो ऊंची आवाज़ से चलाने में दुगनी बुराई है। अगर कोई ख़ालिस दीनी और मज़हबी प्रोग्राम हो तो भी लोगों को लाउडस्पीकर के ज़रिए ज़बरदस्ती शरीक करना शरई एतेबार से हरगिज़ जाएज़ नहीं है लेकिन अफ़सोस! समाज में सियासी-मज़हबी प्रोग्राम करने वाले लोग भी शरीअत के इस अहम हुक्म का बिल्कुल लिहाज़ नहीं रखते। अक्सर देखने में आता है कि मस्जिद में बहुत थोड़े से लोग दर्स सुनने के लिए बैठे हैं जिनको आवाज़ पहुँचने के लिए लाउडस्पीकर की ज़रूरत ही नहीं है बल्कि अन्दुरुनी बाक्स से काम चल सकता है लेकिन मस्जिद की मीनारों पर लाउडस्पीकर पूरी आवाज़ से ख़ुला होता है। यह आवाज़ घर-घर में इस तरह पहुँचती है कि आसपास के हर इंसान को ज़बरदस्ती सुनना पड़ती है। कहीं-कहीं ऐसा भी देखने में आया है कि ख़ाली लाउडस्पीकर पर टेप चला दिया जाता है जबकि अंदर सुनने वाला कोई नहीं होता लेकिन पूरे मोहल्ले को यह टेप ज़बरदस्ती सुनना पड़ता है। दीन की सही समझ रखने वाले लोग कभी ऐसा काम नहीं कर सकते। ऐसा उन जगहों पर होता है जहाँ के लोग इल्मे दीन से वाक़िफ़ नहीं होते हैं। कभी-कभी लोग पूरी नेक नियती से यह काम करते हैं और वह इसे दीन की तबलीग़ का एक ज़रिया मानते हैं लेकिन हमारे समाज में यह उसूल भी बहुत ग़लत मशहूर हो गया है कि नियत की अच्छाई से कोई भी ग़लत काम सही हो जाता है जबकि सिर्फ़ नियत का नेक होना ही काफ़ी नहीं बल्कि उसका तरीक़ा भी सही होना चाहिए। लाउडस्पीकर का ज़ालिमाना इस्तेमाल न सिर्फ़ दीनी तबलीग़ के बुनियादी उसूलों के ख़िलाफ़ है बल्कि इसके उलटे नतीजे भी बरामद होते रहते हैं। रसूले ख़ुदा (स.) ने इर्शाद फ़रमाया किः "पड़ोसी को सताने वाला दोज़ख़ी है।" रसूले ख़ुदा (स.) ने दूसरी जगह इर्शाद फ़रमाया किः "ख़ुदावंदे आलम मुत्तक़ी मुसलमान की वजह से उसके पड़ोसियों से सत्तर बलाओं को दफ़ा करता है।" http://www.wilayat.in/