हमारे अक़ीदे
हमारे अक़ीदे
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Publication year :
2007
Publish location :
लखनऊ
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हमारे अक़ीदे
बिस्मिल्लाहि अर्रहमानि अर्रहीमि इस किताब की तालीफ़ का मक़सद और इसकी ज़िम्मेदारी1)हम इस दौर में एक बहुत बड़े बदलाव का मुशाहेदह कर रहे हैं,ऐसा बदलाव जो आसमानी अदयान में से सबसे बड़े दीन “दीने इस्लाम” में रुनुमा हो रहा हैं।हमारे ज़माने में इस्लाम ने एक नया जन्म लिया है,आज पूरी दुनिया के मुसलमान ग़फ़लत से बेदार हो गए हैं और अपने अस्ल दीन की तरफ़ पलट रहे हैं,अपनी मुश्किलात का हल इस्लामी तालीमात,अक़ाइद व फ़रूअ में तलाश कर रहे हैं। (जो उनको किसी दूसरे मकतबे फ़िक्र में नही मिला)इस बदलाव की दलील क्या है ? यह एक अलग बहस है,अहम बात यह है कि हम यह जान लें कि तमाम इस्लामी व ग़ैरे इस्लामी मुमालिक में जो यह इतना अज़ीम बदलाव आया है इसकी बिना पर दुनिया के बहुत से लोग यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि इस्लाम की तालीमात क्या है ? और इस्लाम में आलमे इँसानियत के लिए क्या नया पैग़ाम है ? इस नाज़ुक मरहले में हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम नमक मिर्च लगाये बगैर सादे, रौशन और क़ाबिले फ़हम अन्दाज़ में लोगों को सही इस्लाम समझायें और जो लोग इस्लाम और मज़ाहिबे इस्लाम को ज़्यादा गहराई से समझने की तमन्ना रखते हैं उनके सामने इस्लाम की हक़ीक़त को बयान कर के उनकी प्यास को बुझायें और ग़ैरों को इस बात का मौक़ा न दें कि हमारी जगह वह बोलने लगें या हमारी जगह वह कोई फ़ैसला लें। 2)इस बात से इस बात से इँकार नही किया जा सकता कि इसलाम में भी दूसरे आसमानी अदयान की तरह बहुत से मज़ाहिब पाये जाते हैं और अक़ीदती व अमली मसाइल में हर एक की अपनी जुदागाना ख़सूसियतें हैं, लेकिन यह फ़र्क़ इतना ज़्यादा नही है कि एक मज़हब का पैरोकार दूसरे मज़हब के मामने वाले के साथ हमकारी न कर सके। बल्कि यह सब आपस में मिल जुल कर शर्क़ो ग़र्ब से उठने वाले तेज़ तूफ़ानों के सामने अपने वुजूद की हिफ़ाज़त कर सकते हैं और अपने मुशतरक दुश्मनों के इरादों को नाकाम बना कर उनको अमली जामा पहना ने से रोक सकते हैं। इस तसव्वुर को पैदा करने,उसको लागू करने और उसको अमीक़ (गहरा)बनाने के लिए कुछ उसूल व जवाबित की रिआयत ज़रूरी है और उनमें से सबसे ज़्यादा अहम यह है कि तमाम इस्लामी फ़िर्क़े आपस में एक दूसरे को इस तरह समझने की कोशिश करे कि एक के ख़सूसियात दूसरे पर अच्छी तरह रौशन हो जाये, क्योँ कि एक दूसरे को जान कर और समझ कर ही ग़लत फहमियों को दूर कर के हमकारी के रास्ते को हमवार किया जा सकता है। एक दूसरे को जान ने और समझने का सब से बेहतर ज़रिया यह है कि “इस्लाम के उसूल व फ़रूअ” में हर मज़हब के अक़ीदे को उस मज़हब के मशहूर उलमा से मालूम किया जाये, क्यों कि अगर नाआगाह लोगों से राब्ता किया जाये या किसी मज़हब के एक़ीदों को उनके दुश्मन मज़हब के लोगों से सुना जाये तो हुब्बो बुग़्ज़ हुसूले मक़सद के रास्ते को बन्द कर दें गे और इस तरह आपस में जुदाई वाक़ेय हो जायेगी। 3)उपर बयान किये गये दोनो नुक्तों के तहत हम ने इस छोटी सी किताब में “इस्लाम के उसूल व फ़रूअ” में “शिया मज़हब” के अक़ीदों को जमा कर के लिखने की कोशिश की है और यह किताब हस्बे ज़ैल ख़ुसूसियात की हामिल है। 1. इसमें तमाम ज़रूरी मतालिब का निचौड़ मौजूद है ताकि पढ़ने वाले को दूसरी किताबों के पढ़ने की ज़रूरत पेश न आये। 2. तमाम बहसें रौशन और इबहाम से खाली हैं यहाँ तक कि उन इस्तलाहों से भी परहेज़ किया गया है जो फ़क़त इल्मी और होज़वी माहौल में इस्तेमाल होती हैं, लेकिन साथ की साथ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि इस काम से किसी बहस की गहराई में कोई कमी न वाक़ेअ होने पाये। 3. वैसे तो इस किताब का मक़सद फ़क़त अक़ीदों का बयान है न कि उनकी दलीलों का, लेकिन कुछ बहुत हस्सास बहसों के लिए जहाँ तक हालात ने इजाज़त दी है किताबो सुन्नत और अक़्ल से उनकी दलीलों को भी बयान किया गया हैं। 4. हक़ीक़त को ज़ाहिर करने की ग़रज़ से हर क़िस्म की पर्दा पोशी,इजमाल और पेश दावरी से परहेज़ किया गया है। 5. तमाम बहसों में सभी मज़ाहिब के लिए अदब व इफ़्फ़ते क़लम की रिआयत की गई है। मौजूदा किताबचे को उपर बयान किये गये नुकाते की रिआयत करते हुए बैतुल्लाहिल हराम के सफ़र में (जिस में रूहो जान में ज्यादा सफ़ा पाई जाती है) लिखा गया,उसके बाद मुताद्दिद जलसों में कुछ उलमा के सामने इस पर गहराई के साथ बहस की हुई और इसको पूरा किया गया। मुझे उम्मीद है कि इस काम के ज़रिये हम ऊपर बयान किये गये मक़ासिद में कामयाब हुए हैं और रोज़े क़ियामत के लिए हमने एक ज़ख़ीरा किया है। अब हम क़ादिरे मुतलक़ की बारगाह में अपने हाथों को उठा कर दुआ करते हैं कि “रब्बना इन्नना मुनादियन युनादि लिलईमानि अन आमिनू बिरब्बिकुम फ़आमन्ना रब्बना फ़ग़फ़िर लना ज़ुनूबना व कफ़्फ़िर अन्ना सय्यिआतिना व तवफ़्फ़ना मअल अबरार ”।