शिया समुदाय

इस्लाम का आरम्भ हिजाज़ में मक्के नामी शहर से हुआ। और इस धर्म के फैलाने वाले हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम हैं। मक्का वह मुक़द्दस (पवित्र) शहर है जिसमें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह की इबादत के लिए काबे नामक एक महान व अज़ीम इबादतगाह बनाई थी। हज़रत मुहम्द सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम का सम्बंध हिजाज़ के मशहूर व ताक़तवर कबीले क़ुरैश से था। और क़ुरैश क़बीले में आपका ख़ानदान बनी हाशिम के नाम से पहचाना जाता था जो अपने अच्छे कैरेक्टर व व्यवहार के लिए मशहूर था। सन् 610 ई. में हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम को पैग़म्बरी मिली। और इसी के साथ इस्लाम के प्रचार का काम शुरू हो गया। शुरू में तो हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने सिर्फ़ अपने परिवार व क़बीले को ही इस्लाम क़ुबूल करने की दावत दी। लेकिन बाद में इस्लाम का प्रचार बड़े पैमाने पर होने लगा। और अवामी सतह पर (सार्वजनिक स्तर पर) लोगों को इस्लाम की ओर बुलाया जाने लगा। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की नुबूव्वत का सबसे ज़्यादा विरोध क़ुरैश के उन लोगों ने किया जो बनी हाशिम से दुशमनी व कीना (ईर्ष्र्या) रखते थे और यह मुख़ालिफ़त इतनी ज़्यादा थी कि इसके प्रभाव बाद में भी देखने में आए। इस्लाम 13 साल की अवधि में मक्के में धीरे धीरे परवान चढ़ता रहा। और जब क़ुरैश व उनके समर्थकों की दुश्मनी की वजह से पैगम्बर (स.) ने मक्के से मदीने की ओर हिजरत (1) की तो इस तरक़्क़ी में और भी ज़्यादा तेज़ी आ गयी। और आख़िर में पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम व उनके साथियों की 23 वर्षीय लगातार कोशिशों के नतीजे में अरबों ने इस्लाम को क़ुबूल कर लिया और मुसलमान हो गये। इसी अवधि में शिया-ए-अली नामक एक मकतबे फ़िक्र (विचारधारा) सामने आया। शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों ने पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की बहुत सी ऐसी हदीसों को बयान किया है जिनसे यह मालूम होता है कि उस वक़्त इस विचारधारा को क़ानूनी हैसियत हासिल थी। जैसे इब्ने असाकिर ने एक रिवायत में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह के इस कथन का उल्लेख किया है कि जाबिर कहते हैं कि हम नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के पास बैठे हुए थे कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम आये और नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने कहा कि मैं उसकी क़सम खाकर कहता हूँ कि जिसके अधिकार में मेरी जान है कि क़यामत के दिन यह (अली अलैहिस्सलाम) और इनके शिया कामयाब होंगे। उस वक़्त यह आयत नाज़िल हुई कि बेशक जो लोग ईमान लाये और उन्होंने अच्छे काम किये वह सब खैरुल बरिय्यह हैं। इसके बाद से अली अलैहिस्सलाम जब भी असहाब के किसी ग्रुप के पास जाते थे तो असहाब कहते थे कि खैरुल बरिय्यह आ गये हैं। (दुर्रे मनसूर (2) 6/589 दारुल फ़िक्र द्वारा प्रकाशित) । इतिहास ने पैगम्बर (स.) के बहुत से ऐसे साथियों का ज़िक्र किया है जिनको शिया-ए-अली के रूप में जाना जाता था जैसे अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास, फ़ज़्ल बिन अब्बास, क़सम बिन अब्बास, अक़ील बिन अबी तालिब, सलमाने फ़ारसी, मिक़दाद, अबूज़र, अम्मारे यासिर, अबूअय्यूबे अन्सारी, उबई बिन कअब, सअद इब्ने इबादह, मुहम्मद बिन अबि बक्र इत्यादि इसी ग्रुप में आते हैं। (इस सम्बन्ध में उस्दुल ग़ाबा (4), अल-इस्तियाब (5), अल-इसाबा (6) सुन्नी मज़हब की किताबें व दरजातुर्रफ़िय्यह, असलुश्शियत व उसूलुहा, फ़सूलुल मुहिम्मह शिया मज़हब की किताबें हैं।) इस विचारधारा की फैलने का कारण यह था कि एक तरफ़ तो अपनी ख़ुसूसियात के आधार पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के नज़दीक ख़ास मक़ाम हासिल था। (समीप विशिष्ठ स्थान प्राप्त था।) दूसरी तरफ़ पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाने की वसीयतें की थी। लेकिन क़ुरैश के वह लोग जो बनी हाशिम से पहले से हसद रखते थे। उनको यह बात हज़म नही हुई और बहुत से अवसरों पर उनके ज़रिए अली अलैहिस्सलाम की मुख़ालिफ़त करने से यह बात पैगम्बर (स.) की ज़िंदगी में ही आम हो गई थी। पैगम्बर ने अली अलैहिस्सलाम के साथ क़ुरैश के व्यवहार की कई बार मज़म्मत (भर्त्सना) भी की। जैसेः यमन की जंग (धर्म युद्ध) के मौक़े पर पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के साथियों के एक गिरोह (ख़ालिद बिन वलीद व उसके साथी) अली अलैहिस्सलाम की क़ियादत (सेनानेतृत्व) के मामले को लेकर पैगम्बर की ख़िदमत में पहुँचे। पहले तो पैगम्बर ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया लेकिन जब उन्होने इस बात को कई बार दोहराया तो पैगम्बर उन पर ग़ुस्सा हो गये और कहा कि मा तुरीदूना मिन अली यानी तुम लोग अली के सिलसिले में क्या सोचते होॽ और इसके फ़ौरन बाद कहा कि “इन्ना अलीयन मिन्नी व अना मिन्हु व हुवा वलियुन कुल्ले मोमिनिन बअदी। बेशक अली मुझसे है और मैं अली से हूँ। और वह मेरे बाद सारे मोमिनों के मौला हैं। (मुसनदे अहमद 4/438 व सही तिरमिज़ी 5/296) यमन की जंग (धर्म युद्ध) के मौक़े पर पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के साथियों के एक गिरोह (ख़ालिद बिन वलीद व उसके साथी) अली अलैहिस्सलाम की क़ियादत (सेनानेतृत्व) के मामले को लेकर पैगम्बर की सेवा में पहुँचे। पहले तो पैगम्बर (स.) ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया लेकिन जब उन्होने इस बात को कई बार दोहराया तो पैगम्बर उन पर ग़ुस्सा हो गये और कहा कि मा तुरीदूना मिन अली यानी तुम लोग अली के सिलसिले में क्या सोचते होॽ और इसके फ़ौरन बाद कहा कि “इन्ना अलीयन मिन्नी व अना मिन्हु व हुवा वलियुन कुल्ले मोमिनिन बअदी। बेशक अली मुझसे है और मैं अली से हूँ। और वह मेरे बाद सारे मोमिनों के मौला हैं। (मुसनदे अहमद (7) 4/438 व सही तिरमिज़ी (8) 5/296)। यमन की जंग (धर्म युद्ध) के मौक़े पर पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के साथियों के एक गिरोह (ख़ालिद बिन वलीद व उसके साथी) अली अलैहिस्सलाम की क़ियादत (सेनानेतृत्व) के मामले को लेकर पैगम्बर की सेवा में पहुँचे। पहले तो पैगम्बर (स.) ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया लेकिन जब उन्होने इस बात को कई बार दोहराया तो पैगम्बर उन पर ग़ुस्सा हो गये और कहा कि मा तुरीदूना मिन अली यानी तुम लोग अली के सिलसिले में क्या सोचते होॽ और इसके फ़ौरन बाद कहा कि “इन्ना अलीयन मिन्नी व अना मिन्हु व हुवा वलियुन कुल्ले मोमिनिन बअदी। बेशक अली मुझसे है और मैं अली से हूँ। और वह मेरे बाद सारे मोमिनों के मौला हैं। (मुसनदे अहमद 4/438 व सही तिरमिज़ी 5/296) इन मुख़ालिफ़तों का फ़ायदा यह हुआ कि बहुत से लोगों का लगाव हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरफ़ हो गया। जैसे कि दूसरे खलीफ़ा ने इस सम्बन्ध में गवाही भी दी है, जब उन्होनें इब्ने अब्बास से कहा कि ऐ इब्ने अब्बास! क्या तुम जानते हो कि वह क्या बात थी जिसकी वजह से पैगम्बर (स.) के बाद तुम्हारी बैयत नही हुईॽ वह यह पसंद नही करते थे कि तुम लोग नुबूव्वत की तरह खिलाफ़त को भी अपने पास रखो। इसलिए क़ुरैश ने खिलाफ़त पर अपना अधिकार जमा लिया और यह एक कामयाब व अच्छा काम था। इसके बाद उमर ने कहा कि मैंनें सुना है कि तुम यह कहते हो कि ख़िलाफ़त को हमसे हसद व कीने की वजह से ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) छीन लिया गया। इब्ने अब्बास ने जवाब दिया कि तुमने जो यह कहा है कि बलपूर्वक छीन लिया गया इसमें कोई शक नहीं है इसको तो आलिम व जाहिल हर इंसान जानता है। और तुमने यह जो कहा है कि यह हसद की वजह से था तो यह बात भी सही है क्योंकि तुम जानते हो कि आदम से हसद किया गया और हम उसी आदम की अवलाद हैं जिनसे हसद किया गया था। (अल कामिल फ़ित्तारीख़, (9) 3/24शरहे इब्ने अबिल हदीद (10) 3/107 तारीख़े बग़दाद (11) 2/97) मुन्दर्जा बाला (उपरोक्त वर्णित) उमर की इस बात चीत का ज़िक्र याक़ूबी ने भी किया है और उसने यह भी लिखा है कि आख़िर में उमर ने कहा कि ऐ इब्ने अब्बास! अल्लाह की क़सम आपके चचा के बेटे अली खिलाफ़त के लिए सबसे अच्छे शख़्स हैं। लेकिन क़ुरैश तो उनको देखना भी पसंद नही करते। (मुरूजुज़्ज़हब (12) 2/137) हिजाज़ (अरब) की वह ज़मीन जहाँ पर क़बीला प्रथा का राज था, पैगम्बर के सम्मुख इस प्रकार की ईर्श्या व मुख़ालिफ़त का पाया जाना कोई आश्चर्य जनक बात नही है। रेफ़रेंसः (1). निवास स्थान परिवर्तन के लिए पैगम्बर की मक्के से मदीने की यात्रा को इस्लाम में “हिजरत” कहा जाता है। (2). दुर्रे मनसूर क़ुरआने करीम की तफ़सीर की किताब है जिसके लेखक अब्दुर्रहमान बिन अबिबक्र सयूती हैं। वह एक फ़क़ीह, मुफ़स्सिर, मुहद्दिस, अदीब व मुवर्रिख़ (इतिहासकार) थे। और वह शाफ़ई मज़हब के मानने वाले थे। वह 849 हिजरी क़मरी में मिस्र के सयूत नामी शहर में पैदा हुए। उनके बारे में इब्ने उम्माद हंबली नामी दानिश्वर (विद्वान) कहता है कि वह हदीस व रिजाल में अपने समय के सबसे बड़े विद्वान थे।और उनका देहांत सन् 911 हिजरी में हुआ। (3). उस्दुल ग़ाबा फ़ी मअरिफ़तिस् सहाबह के लेखक अबुल हसन अली बिन अबि बक्र मुहम्मद बिन अब्दुल करीम अब्दुल वाहिद शैबानी हैं। जो इब्ने असीर जज़री के नाम से मशहूर हैं। वह सन्555 हिजरी में अलजज़ीरा में पैदा हुए और वहीँ पर पले बढ़े। और इसके बाद अपने वालिद के साथ मूसल आ गये। वह हदीस व तफ़्सीर के उस्ताद और अपने वक़्त के एक बड़े इतिहासकार थे। तारीख़ में उनकी किताब अलकामिल फ़ित्तारी मशहूर है। उन्होंने इब्ने समआनी की किताब अल अंसाब का ख़ुलासा (संक्षिप्ती करण) किया और उस पर नोट लिखे। उनकी वफ़ात सन् 630 हिजरी में मूसल में हुई। (4). उस्दुल ग़ाबा फ़ी मअरिफ़तिस् सहाबह के लेखक अबुल हसन अली बिन अबि बक्र मुहम्मद बिन अब्दुल करीम अब्दुल वाहिद शैबानी हैं। जो इब्ने असीर जज़री के नाम से मशहूर हैं। वह सन्555 हिजरी में अलजज़ीरा में पैदा हुए और वहीँ पर पले बढ़े। और इसके बाद अपने वालिद के साथ मूसल आ गये। वह हदीस व तफ़्सीर के उस्ताद और अपने वक़्त के एक बड़े इतिहासकार थे। तारीख़ में उनकी किताब अलकामिल फ़ित्तारी मशहूर है। उन्होंने इब्ने समआनी की किताब अल अंसाब का ख़ुलासा (संक्षिप्ती करण) किया और उस पर नोट लिखे। उनकी वफ़ात सन् 630 हिजरी में मूसल में हुई। (5). अल इस्तियाब फ़ी मारिफ़तिल असहाब इस किताब के लेखक युसुफ़ बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन अब्दुल बर्र क़रतबी हैं जो मालकी सम्प्रदाय से तअल्लुक़ रखते हैं। वह सन् 368 हिजरी में क़रतबे में पैदा हुए थे। वह सुन्नी मज़हब के बड़े मुहद्दिस फ़क़ीह व इतिहासकारों में गिने जाते हैं। उनकी वफ़ात सन् 463 हिजरी में हुई। (6). अल इस्तियाब फ़ी मारिफ़तिल असहाब इस किताब के लेखक युसुफ़ बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन अब्दुल बर्र क़रतबी हैं जो मालकी सम्प्रदाय से तअल्लुक़ रखते हैं। वह सन् 368 हिजरी में क़रतबे में पैदा हुए थे। वह सुन्नी मज़हब के बड़े मुहद्दिस फ़क़ीह व इतिहासकारों में गिने जाते हैं। उनकी वफ़ात सन् 463 हिजरी में हुई। . अल-इसाबा फ़ी तमीज़िस्सहाबह इस किताब के लेखक इब्ने हज्र अहमद बिन अली बिन मुहम्मद अक़लानी हैं जो शाफ़ेई मज़हब से तअल्लुक़ रखते हैं। वह सन् 774 हिजरी में पैदा हुए और सन् 852 हिजरी में उनका देहान्त हो गया। वह क़ाहिरा में पैदा हुए और यमन, हिजाज़ आदि में शिक्षा प्राप्त की। वह अपने समय में एक बड़े फ़क़ीह, अदीब, मुहद्दिस, इतिहासकार व इल्में रिजाल के ज्ञाता थे। लिसानुल मीज़ान, तक़रीबुत्तहज़ीबुल इसाबत व फ़तहुल बारी फ़ी शरहि सही बुख़ारी उनकी प्रसिद्ध किताबें हैं। (7). मुसनदे अहमद हदीस की एक मशहूर किताब है जिसका संकलन हम्बली मज़हब के इमाम अहमद बिन मुहम्मद बिन हम्बल, अबुअब्दुल्लाह शैबानी वायली ने किया है। यह सुन्नी मज़हब के चार इमामों में गिने जाते हैं। वह सन् 164 हिजरी में बग़दाद में पैदा हुए सन् 241 हिजरी में मुतवक्किल अब्बासी के शासन काल में इस दुनिया से गये। उन्होने बहुत सी किताबें लिखी जिनमें से मुख्य मुसनद है। इस किताब में लगभग 30000 हदीसों का ज़िक्र किया गया है। (8). सही तिरमिज़ी सुन्नी मज़हब की छः सही कहलाई जाने वाली हदीस की किताबों में से एक है। और इस किताब का संकलन अबू ईसा मुहम्मद बिन ईसा तिरमिज़ी ने किया है। वह सुन्नी मज़हब में हदीस के बड़े विद्वानों में गिने जाते हैं। उनकी वफ़ात सन् 279 हिजरी में तिरमिज़ के एक गाँव बूग़ मे हुई। (9). अलकामिल फ़ित्तारीख इस किताब के लेखक इब्ने असीरे जज़री हैं। (10) .इब्ने अबिल हदीद, इज़्ज़ुद्दीन अबुहामिद इब्ने हिबतुल्लाह बिन मुहम्मद बिन हुसैन बिन अबिल हदीद मदाइनी अब्बासी शासन काल के एक बड़े दानिश्वर व मुवर्रिख़ (विद्वान व इतिहासकार) थे। वह एक दानिश्वर, उसूली, फ़क़ीह व अदीब थे। और मोतज़ेला सम्प्रदाय से तअल्लुक़ रखते थे। उनका जन्म सन् 586 हिजरी में मदाएन में हुआ था। देहान्त सन् 656 हिजरी में हुआ। उन्होनें बहुत सी किताबें लिखी जिनमें से एक नहजुल बलाग़ा की शरह भी है। (11). तारीख़् बग़दाद नामक किताब इतिहास से सम्बन्धित है। और इस किताब के लेखक अबुबकर अहमद बिन अली बिन साबित बग़दादी हैं जो ख़तीबे बग़दादी के नाम से मशहूर हैं। वह हदीस के हाफ़िज़ व इतिहासकार थे। वह सन् 392 हिजरी में मक्के और कूफ़े के बीच उज़ैय्यह नामी मक़ाम पर पैदा हुए। और उनका पालन पोषण बग़दाद मे हुआ। और फिर सन् 463 हिजरी में इसी शहर में वफ़ात हुई। उन्होंने 56 किताबें लिखी हैं इनमें अहेमतरीन किताब तारीखे बग़दाद है जिसकी 14 जिल्दे हैं। (12). मुरूजुज़्ज़हब किताब के लेखक अली बिन हुसैन बिन अली, अबुलहसन मसऊदी हैं। यह पैगम्बर के सहाबी मसऊदी की नस्ल (वंश) से हैं। वह बग़दाद में पैदा हुए और मिस्र में रहे और अन्त में सन् 346 हिजरी में मिस्र में ही उनका देहान्त हुआ। वह मोतज़ेला मज़हब से तअल्लुक़ रखते थे। उन्होनें बहुत सी किताबें लिखी जिनमें से मुख्य मुरूजुज़्ज़हब, अखबारे ज़मान व मन इबादिहिल हदसान, अत्तंबीह वल अशराफ़, सिर्रूल हयात, अल इस्तिब्सार वग़ैरह हैं। http://www.wilayat.in/