इबादत का मतलब

अल्लाह तआला बन्दे के अमल को कब स्वीकार करता है? और अमल के अंदर किन शर्तों का पाया जाना चाहिए ताकि वह सालेह (नेक) और अल्लाह के पास स्वीकृत हो सके? हर तरह की हम्द व सना अल्लाह के लिए है। अल्लाह की प्रशंसा और स्तुति के बाद: कोई भी कार्य इबादत (पूजा) के अधिनियम में उस वक़्त तक नहीं आ सकता जब तक कि उस में दो चीज़ें पूर्ण रूप से न पाई जायें और वे दोनों चीज़ें: अल्लाह के लिए संपूर्ण विनम्रता के साथ संपूर्ण प्यार का पाया जाना है, अल्लाह तआला का फरमान है: "और जो लोग ईमान लाये हैं (मोमिन लोग) अल्लाह तआला से सब से बढ़कर प्यार करने वाले होते हैं।(सूरतुल बक़राः आयतः 165)" तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया: "वे लोग भलाई और अच्छाई के कामों में जल्दी करते थे, तथा वे आशा और भय के साथ हमें पुकारते थे, और हमारे लिए विनम्र रहते थे।(सूरतुल अंबियाः आयतः 90) " जब यह ज्ञात हो गया, तो यह भी ज्ञात रहना चाहिए कि इबादत (पूजा और उपासना) केवल एकेश्वरवादी मुसलमान से ही स्वीकार की जाती है जैसाकि सर्वशक्तिमान अल्लाह तआला ने काफिरों (नास्तिकों) के विषय में फरमाया है: "और उन्हों ने जो कार्य किए थे हम ने उनकी ओर बढ़ कर उन्हें उड़ते हुए ज़र्रों (कणों) की तरह कर दिया।(सूरतुल फुर्क़ानः आयतः 23) " फिर यह बात भी ज्ञात रहनी चाहिए कि एक मुसलमान व्यक्ति से इबादत (पूजा और उपासना) उसी समय स्वीकार की जाती है जब उस में दो बुनियादी शर्तें पाई जायें: प्रथम: अल्लाह तआला के लिए नीयत को विशुद्ध करना: इस का मतलब यह है कि बन्दे का अपने सभी प्रोक्ष और प्रत्यक्ष कथनों और कर्मों से उद्देश्य केवल अल्लाह तआला की प्रसन्नता और खुशी प्राप्त करना हो। द्वितीय: उस शरीअत की अनुकूलता, एकमात्र जिस के अनुसार अल्लाह तआला ने अपनी इबादत करने का आदेश दिया है, और यह इस प्रकार हो सकता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जो कुछ लेकर आये हैं उसे में आप का अनुसरण किया जाये, आपका विरोध करना त्याग दिया जाये, कोई नयी इबादत या इबादत के अंदर कोई नयी विधि न पैदा की जाये जो आप सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम से प्रमाणित न हो। इन दोनों शर्तों का प्रमाण अल्लाह तआला का यह कथन है: "तो जिस व्यक्ति को अपने रब (परमेश्वर) से मिलने (या उस के पुरस्कार) की आशा हो, तो उसे नेक काम करना चाहिए और वह अपने रब (पालनहार) की इबादत में किसी को साझी न ठहराये।(सूरतुल कह्फ: 110)" इब्ने कसीर फरमाते हैं: (जिसे अपने रब से मिलने) अर्थात् उसके प्रतिफल और अच्छे बदले के पाने की आशा हो, (तो उसे अमले सालेह करना चाहिए) अर्थात् ऐसा काम जो अल्लाह की शरीअत के मुताबिक़ और अनुकूल हो, (और अपने रब की इबादत में किसी को साझी न करे) और यह वह काम है जिस का उद्देश्य केवल अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करना हो जिस का कोई शरीक और साझी नहीं, और यही दोनों, स्वीकार किये जाने वाले अमल के दो स्तंभ हैं: उसका अल्लाह के लिए ख़ालिस और विशुद्ध होना और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार ठीक (दुरूस्त) होना आवश्यक है।" (इब्ने कसीर की बात समाप्त हुई) तथा इंसान जितना ही अपने रब (पालनहार) और उसके नामों और गुणों के बारे में अधिक जानकारी रखने वाला होगा, उतना ही अधिक उसके अंदर इख़्लास और ईमानदारी पैदा होगी, और जितना ही वह अपने पैग़म्बर (स.) और आप की सुन्नत का अधिक जानकार होगा उतना ही अधिक वह पैरवी और अनुसरण करने वाला होगा, और इख़्लास (ईमानदारी) और सुन्नत की पैरवी (अनुसरण) के द्वारा ही बन्दे को लोक और परलोक दोनों घरों में मोक्ष प्राप्त होता है। हम अल्लाह तआला से दुनिया और आख़िरत में सफ़लता चाहते हैं। http://www.wilayat.in/