दांपत्य जीवन के सिद्धांत

आदर्श या इस्लामी जीवन शैली में जिन बिन्दुओं पर बल दिया जाता है उनमें पारिवारिक संबंधों विशेष रूप से पति-पत्नी के बीच संबंधों का तर्कपूर्ण होना शामिल है। परिवार को नुक़सान पहुंचाने वाली मुसीबतों में से एक दूसरे से अतार्किक अपेक्षाएं व इच्छाएं रखना है। कभी कभी इन इच्छाओं व अपेक्षाओं के कारण जीवन का सुकून छिन जाता है। प्रायः युवा पति-पत्नी इस आयाम से हानि उठाते हैं कि उन्हें अपनी अपेक्षाओं के तार्किक व अतार्किक होने की सीमा का पता नहीं होता। इसी कारण पति-पत्नी की भावनाएं आहत होती हैं। जीवन में संकट उस वक़्त शुरु होता है जब अतार्किक अपेक्षाएं बढ़ती जाएं और पति-पत्नी का एक दूसरे से इस संदर्भ में प्रतिरोध कम होता जाए। इसके नतीजे में नकारात्मक भावनाएं विकसित होती हैं और आपसी संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं और टूटने की कगार पर पहुंच जाते हैं। संतुलित परिवार तार्किक अपेक्षाओं की सीमा निर्धारित करके जीवन में तनाव पैदा करने वाले कारकों का मार्ग बंद कर देते हैं। इस प्रकार जीवन में आपसी सहमति व सद्भाव का रस घोलते हैं। दांपत्त जीवन में चूंकि नए संबंध व संपर्क बनते हैं इसलिए पति-पत्नी के व्यक्तिगत हित व पसंद अलग प्रकार की होती हैं। परिणामस्वरूप व्यक्तिगत हितों में मतभेद ज़्यादा स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में यदि पति-पत्नी नैतिक मूल्यों से संपन्न होंगे तो ज़िन्दगी में व्यक्तिगत पसंद और ज़िद्द हठधर्मी के बजाए, मतभेद को तर्क के ज़रिए हल करने की कोशिश करेंगे। लेकिन ऐसे भी परिवार मिलेंगे जहां पति-पत्नी परिवार के अन्य सदस्यों पर ज़ोर ज़बर्दस्ती से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार के परिवारों में तर्क को छोड़ दिया जाता है जिसके नतीजे में पारिवारिक माहौल ख़राब हो जाता है क्योंकि निर्णय लेने की प्रक्रिया में अन्य सदस्यों की कोई भूमिका नहीं होती। वैवाहिक जीवन में संबंधों को सुव्यवस्थित करने के लिए कुछ नियमों का निर्धारण ज़रूरी है किन्यु यह नियम उस समय पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों को सही रूप से परिभाषित कर सकेंगे जब उनकी भावनात्मक ज़रूरत के अनुकूल व सही आधार पर हों। सही बात जिसकी हो उसे माना जाए चाहे वह पति की हो या पत्नी की। लिंग, आयु और शिक्षा इनमें से किसी भी चीज़ को तर्क व सत्य के मार्ग पर रुकावट नहीं बनना चाहिए। पति पुरुष होने और पत्नी महिला होने के नाते एक दूसरे पर अपने दृष्टिकोण व पसंद की नहीं थोप सकते। सही बात और तर्कपूर्ण शैली पर पवित्र क़ुरआन और इस्लामी शिक्षाओं में बहुत बल दिया गया है। परिवार में सही बात को मानने का पति-पत्नी के संबंधों पर अच्छा असर पड़ता है। इस्लाम में सही बात को क़ुबूल करना, ईमान और नैतिकता की शर्त बताया गया है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम का एक मूल्यवान कथन है। आप फ़रमाते हैं, “ सच बात कहो चाहे तुम्हारा नुक़सान ही क्यों न हो।” पति पत्नी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कभी बहस के वक़्त हक़ सामने वाले पक्ष के साथ होता है। इस स्थिति में नैतिक, धार्मिक कर्तव्य और पारिवारिक प्रतिबद्धता का तक़ाज़ा है कि सही बात को मान लिया जाए। इस स्वीकृति से सामने वाले पक्ष का ग़ुस्सा ठंडा हो जाता है जबकि तर्क और सत्य से फ़रार से न केवल यह कि मन से द्वेष ख़त्म नहीं होता बल्कि सामने वाले पक्ष के मन से अपना विश्वास भी खो देता है। जिस परिवार में मतभेद व नोकझोंक रहती है, ऐसे माहौल में दोनों का एक दूसरे से जुड़ा रहना मुश्किल होता है। शोध दर्शाते हैं कि जिस परिवार में बहस व नोकझोंक रहती है उसमें कोई भी सदस्य ख़ुश नहीं रहता चाहे बहस के नतीजे में किसी एक पक्ष का फ़ायदा हो किन्तु हक़ीक़त में वह सफल नहीं होगा। इस्लामी नियम पुरुष को पत्नी के साथ दुर्व्यवहार की इजाज़त नहीं देते। इस्लाम में इस बात की सिफ़ारिश की गयी है। महिलाओं के कोमल स्वभाव पर ध्यान दिया गया है। अलबत्ता पति-पत्नी को चाहिए कि धार्मिक व नैतिक आदेश के मद्देनज़र परिवार के माहौल में हठधर्मी को छोड़ें और बड़े उद्देश्य के लिए अपने छोटे अधिकार त्याग दें। इस्लामी जीवन शैली में इस बात की भी सिफ़ारिश की गयी है कि जीवन साथी से बातचीत के दौरान तर्क को मद्देनज़र रखना चाहिए। अगर जीवन साथी के लिए हक़ीक़त को मानना मुश्किल हो शायद अहं के कारण, तो अपने स्वर को आदेश के बजाए सुझाव के रूप में पेश करें। कभी अतीत की किसी ऐसी घटना का ज़िक्र कीजिए जिसमें तर्क के ज़रिए मुश्किल हल हुयी हो। जिस परिवार में तर्क को मद्देनज़र रखा जाता है वहां ग़लत आलोचना और अपमान का नामो निशान नहीं होता। इस्लामी जीवन शैली का अनुसरण करने वाले परिवारों के व्यवहार में एक बात यह भी दिखाई देती है कि वे क्षमाशीलता अपनाते हैं और दूसरों की ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इस्लाम में क्षमाशीलता को बहुत अहमियत दी गयी है और इसे मोमिन बंदों की विशेषताओं में बताया गया है। पूरी मानवता के शिक्षक पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के आचरण में मिलता है कि उन्होंने क्षमाशीलता व सहनशीलता के ज़रिए बहुत से लोगों को इस्लाम के उच्च सिद्धांतों की ओर आकर्षित किया और बहुत से पथभ्रष्टों को गुमराही से बचाया। इस्लामी शिक्षाओं में लोगों से सभाओं और पारिवारिक माहौल में सहनशीलता की अपील की गयी है। पति-पत्नी से एक दूसरे के लिए शांतिपूर्ण माहौल बनाने पर बल दिया गया है। पति-पत्नी संयुक्त जीवन में एक दूसरे के इतना क़रीब होते हैं कि आपस में एक दूसरे की अच्छाई और कमी को भलिभांति समझते हैं इसलिए उन्हें चाहिए कि वे एक दूसरे को घुड़कने से बचें क्योंकि ऐसा करने से ज़िन्दगी का चैन व सुकून छिन जाएगा और एक दूसरे के प्रति भ्रान्ति पैदा होगी जो आपस में दूरी का कारण बनेगी। क्षमाशीलता व सहनशीलता का तक़ाज़ा है कि पति-पत्नी एक दूसरे की कमी को ज़ाहिर करने के बजाए उसे छिपाएं। और कभी यह ज़ाहिर करें कि मानो सामने वाले की ग़लती को नहीं जानते। दूसरी ओर पति-पत्नी एक दूसरे की कमियों को नज़र अंदाज़ करके अपने व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं और उनके संबंध विकसित होते जाते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक कथन है, “छोटी बातों को नज़रअंदाज़ करके ख़ुद में बड़प्पन पैदा करो और इस प्रकार अपने स्थान को ऊंचा करो।” अनुचित व्यवहार के मुक़ाबले में सहनशीलता से पारिवारिक संबंध बेहतर होते हैं। इस व्यवहार के जारी रहने से दीर्घकाल में बहुत से सार्थक परिणाम सामने आते हैं। अलबत्ता इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी उपाय किया जाए ताकि अनुचित व्यवहार बढ़ने न पाए। कभी मुमकिन है कि जीवन साथी के संबंध में हमारी सहनशीलता व अर्थपूर्ण ख़ामोशी सामने वाले को अपने व्यवहार पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करे। हर हाल में अपने जीवन साथी के व्यक्तित्व व भावनाओं के मद्देनज़र, उचित उपाय अपनाया जा सकता है इस शर्त के साथ कि इससे जीवन साथी के व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आए। hindi.irib.ir