पश्चिमी समाज मे औरत का शोषण (3)
पश्चिमी समाज मे औरत का शोषण (3)
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पिछले हिस्से में बताए गए पश्चिमी माहौल के मुक़ाबले में जब हम पूर्बी समाजी माहौल की जांच पड़ताल करते हैं तो आम तौर पर दो तरह के लोग दिखाई देते हैं, एक वह जो पश्चिमी लाईफ़ स्टाईल से अलग तो हैं लेकिन कई एंगिल से निन्दनीय कार्य शैली अपना रखी है, और ऐसे लोगों का ग्रुप उभर चुका है जो पच्छिम के बढ़ते हुए सियासी व इकोनॉमिक प्रभाव के तहत हर चीज़ मे पश्चिमी समाज की नक़ल करते हैं, जबकि यह डायरेक्टली अपनी अख़लाक़ी (moral) व तहज़ीबी (cultural) विरासत मे भरोसे की कमी, (पूरब के) इकनामिक सिस्टम की नाकामी, और कमज़ोर सियासी प्रैक्टिकल स्किल के परिणाम हैं, जिसने यहां गुटीय, वर्णीय व धार्मिक पछपात एवं शक या सन्देह ने सर उठा रखा है। ज़्यादातर पूर्बी क़ौमों के अन्दर शादी ब्याह की रस्मों मे बहुत ज़्यादा फ़ुज़ूलख़र्ची (अत्याधिक ख़र्च) का प्रदर्शन होता है, कभी-कभी इस तरह के आयोजन को समाजी या सियासी दबदबा दिखाने मे इस्तेमाल किया जाता है, अनेक गुटों एवं क्षेत्रों मे ज्योतिष (नुजूमी) से सम्बन्धित असर के डर एवं वहेम से लोगों के कामों को सीमित या बाधित कर दिया जाता है, जिससे सम्बन्धित लोगों के अन्दर क़ुदरत से मिली हुई शक्तियों के सही व पाज़ेटिव इस्तेमाल की दिशा व कोशिश सर्द पड़ जाती है, इससे उनकी पॉज़ेटिव सोच और किसी चीज़ को बनाने वाली भावना कमज़ोर हो जाती है, पूरब मे आमतौर से लोग ज़ातपात, गुटबन्दी, भाषाई गुटों, एवं राष्ट्रीय गुटों मे बटे हुए हैं। विभिन्न धार्मिक गुटों के बीच मेल मिलाप की असली व आन्त्रिक भावना नही पाई जाती है, बल्कि नफ़रत, आपस मे मेलमिलाप का न होना और पारिवारिक व क़बाएली दबदबे की निगेटिव सोच पाई जाती है, कभी वह एक दूसरे को समय की मांग के अनुसार सहेन कर लेते हैं, यह ऐसी कमज़ोर स्थिति है जो कभी और किसी समय भी टूट सकती है और पश्चिमी साम्राज्यवाद इस से फ़ाएदा उठा सकता है और उठाता है। पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ) ने फ़रमाया है कि जो इंसान बाहरी ख़ूबसूरती के आधार पर किसी औरत से शादी करेगा वह उसमे अपनी प्यारी चीज़ नही पाएगा, शादी (निकाह) के समारोह, बिदाई आदि से पहले मेल जोल के पश्चिमी तरीक़े से अक्सर अच्छे नतीजे हासिल नहीं होते हैं और न सीमित दायरे के अलावा यह जायज़ व वैध है। यहाँ हम इस्लामी क़ानून व अख़लाक़ के आधार पर औरत की हैसियत पर बात करेंगे जिससे उसकी महानता के बारे मे पता चल सके, और इस दौर मे प्रचलित ह्यूमन राइट्स मे किस तरह उसके अधिकारों को रौंदा जा रहा इस पर कुछ रौशनी डाली जा सके, क़ुरान व हदीस के अनुसार औरत की हैसियत, उसके राईट्स, और ज़िम्मेदारियों को संक्षेप मे नीचे बयान किया गया है। 1. जन्नत मां के क़दमों में है। 2. मां के अधिकार बाप के अधिकारों की तुलना मे कहीं ज़्यादा हैं। 3. बेटियों के साथ अच्छे व्यवहार के बारे मे विशेष आग्रह किया गया है और उसे नेकी व रहमत बताया गया है। 4. मां की सेवा बहुत से गुनाहों को पाक करती है। 5. अगर मां मुस्लिम न भी हो तब भी उसके साथ अच्छा व्यवहार ज़रूरी है। 6. बीवी से सम्बन्धित राईट्स और ज़िम्मेदारियों को विशेष प्राथमिकता व महत्व दिया गया है। 7. रसूलुल्लाह (स.अ) का व्यवहार अपनी बीवियों के साथ आइडियल था। 8. निकाह के सम्बन्ध मे एक औरत या लड़की से उसकी इच्छा मालूम करना सुन्नत के अनुसार अनिवार्य है। 9. निकाह करने का प्रस्ताव मर्द (लड़के वालों) की ओर से औरत (लड़की वालों) की तरफ़ दिया जाता है। 10. निकाह के साथ मेहेर (लड़के द्वारा लड़की को दिया जाने वाला धन) को तय किया जाना और उसका भुगतान किया जाना वाजिब (अनिवार्य) है। 11. लवात (homosexuality-अप्राकृतिक सेक्स सम्बन्ध) करने वालों पर अल्लाह की लानत है। 12. एक से अधिक बीवियॉं होने पर उनके बीच बराबरी का व्यवहार और इंसाफ़ ज़रूरी है। 13. तलाक़ को इस्लाम मे बुरा काम समझा जाता है (अर्थात इससे जितना सम्भव हो बचना चाहिए) 14. जो कुछ (माल) दुल्हन को शादी के अवसर पर मेहेर सहित दिया जाए वह उसकी मालिक है और उसको वापस लेना यहां तक कि तलाक़ की सूरत मे भी जाएज़ नही है। 15. बाप और पति की हैसियत से मर्द पर अपने बीवी बच्चों की ज़िम्मेदारी और परवरिश (पालन-पोषण) वाजिब है। 16. अगर अपनी मुख्य ज़िम्मेदारियों के अलावा कोई औरत (बीवी) फ़ालतू समय के दौरान किसी काम से कुछ कमाती है तो वह उसकी अपनी सम्पत्ति है। 17. रसूले अकरम (स) उनके असहाब और अहलेबैत अ की सीरत मे बीवियों से व्यवहार की शानदार छाया मिलती है , वह उनके घरेलू कामों मे उनकी मदद करते थे। 18. बीवी की हैसियत से पति के प्रति और मां की हैसियत से बच्चों के प्रति उसके अधिकार और ज़िम्मेदारियों के अलावा दूसरे घरेलू काम-काज को करना औरत के लिए ‘मुसतहेब’ है जिसका अर्थ है कि उन कामों को करने मे तो सवाब है लेकिन न करने मे कोई गुनाह नही है, और इनके करने के बदले उसके लिए जिहाद का सवाब लिखा जाता है, अगर बच्चे को जन्म देते समय किसी मां की मौत हो जाए तो उसका इनाम एक शहीद के बराबर है। 19. रसूलुल्लाह (स) ने उस इंसान के सिलसिले में जन्नत में जाने की ख़ुशख़बरी दी है जो रहेम दिली के साथ एक बेटी या एक बहेन (या अधिक) का पालन-पोषण करे। 20. हदीसे नबवी (स) मे आया है कि अगर कोई चीज़ घर मे लाओ तो उसके बांटने की शुरूवात बेटी/ बेटियों से करो। 21. इस्लाम के अनुसार इल्म हासिल करना मुस्लिम मर्दों और मुस्लिम औरतों का कर्तव्य है। हदीस के अनुसार सभी किताबों में जिसमे शिया व सुन्नी दोनो की किताबें शामिल हैं, औरत की विशेष हैसियत और उसके विशेष अधिकारों के बारे मे रिवायतें मौजूद हैं, उदाहरण के लिए सही बुख़ारी और सही मुसलिम मे हदीसे रसूल (स) है जिसको जनाबे आयशा ने बयान किया है कि रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया कि जिस किसी मर्द या औरत पर बेटियों के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी आ चुकी है, अगर वह मेहेरबानी के साथ उनसे व्यवहार करे तो यह उनके लिए जहन्नम कि आग से बचने की ढाल साबित होगी। कई लोगों से जिनमे बुख़ारी व मुसलिम भी शामिल हैं एक घटना नोमान बिन बशीर के सम्बन्ध मे बयान की गई है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने नोमान बिन बशीर के पिता द्वारा तय्यार की गई वसीयत पर गवाह बनने से इंकार कर दिया था जिसमें नोमान के पिता ने अपनी बीवी के कहने पर बेटियों को वंचित करके अपनी जायदाद नोमान के नाम कर दी थी। इस अवसर पर रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया मैं नाइंसाफ़ी के दस्तावेज़ का गवाह नही बनूँगा। हदीस की किताब ‘अल्काफ़ी’ मे इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने रसूले अकरम (स) की एक रिवायत बयान की है जिसमे एक मर्द के लिए हिदायत की गई है कि किसी औरत से निकाह के समय इन शब्दों को दुहराना चाहिये कि उसने अल्लाह को उपस्थित व मौजूद मानकर क़सम खाई है कि वह होने वाली बीवी के साथ उचित व्यवहार करेगा और अगर तलाक़ ज़रूरी हो जाए तो उस सिचिवेशन मे बीवी को मेहरबानी और एहसान के साथ अलग कर देगा, यह किसी भी स्थिति मे जायज़ नही है कि एक आदमी अपनी बीवी को निलंबित हालत मे रखे अर्थात न बसाए न तलाक़ दे। क़ुरान शरीफ़ के सूरा-निसा की आयत 53 मे अल्लाह तआला ने मिया बीवी के बीच किसी झगड़े को हल करने के लिए हिदायतें जारी की हैं कि एक इंसाफ़ करने वाले इंसान को मर्द के परिवार से और एक को औरत के परिवार से नियुक्त कर दो अगर वह दोनो सुलह-समझौता करना चाहें तो अल्लाह मिया बीवी के बीच समझौते और दोस्ती को बढ़ावा देगा। इस्लाम में कुछ शर्तों के साथ दोनो, मर्द व औरत को तलाक़ का अधिकार हासिल है, इस्लाम ने औरत के लिए पर्दा करना ज़रूरी रखा है लेकिन इसकी शक्ल व तरीक़े के बारे मे माहौल, भौगोलिक स्थिति और राष्ट्रीयता के अनुसार भिन्नता पाई जाती है, हालाँकि क़ुरान व सुन्नत के अनुसार बालों और जिस्म को छिपाना वाजिब है, चेहरे की गोलाई और कलाई के नीचे हाथों को खुला रखने पर कोई पाबन्दी नही है, कुछ लोग आंखों और उसके आसपास के हिस्से को ही खुला रखना सही मानते हैं उनके अनुसार शेष भाग बन्द रहना चाहिए, पर्दे का वास्तविक मक़सद इसके नियमो का पालन करके औरत की पाकीज़गी की रक्षा करना है, इससे औरतों के सम्मान का एहसास भी उभरता है और मर्दों के अन्दर सहनशीलता की भावना मे निखार भी पैदा होता है। इस्लाम मे होने वाले मियां और बीवी का शरीफ़ माहौल मे एक बार एक दूसरे को देखने और बात करने से मना नही किया गया है, कैरेक्टर को ज़्यादा इम्पार्टेंस देकर शादी की सच्ची महत्ता को उजागर किया गया है, इस सम्बन्ध मे रसूले अकरम (स) का इरशाद है कि जो इंसान बाहरी ख़ूबसूरती के आधार पर किसी औरत से शादी करेगा वह उसमे अपनी प्यारी चीज़ नही पाएगा, शादी (निकाह) और रुख़सती (विदाई) से पहले मेल-जोल के पश्चिमी तरीक़े से अक्सर अच्छे नतीजे हासिल नहीं होते हैं और न सीमा से अधिक यह जाएज़ है, हदीस के अनुसार ख़ूबसूरत और अच्छे कैरेक्टर की बीवी अल्लाह की ओर से नेमत है, नेमत का शुक्रिया यह है कि, मिया बीवी आपस में मुहब्बत रखें व एक दूसरे का लिहाज़ करें, पवित्रता व वफ़ादारी की रक्षा करें, आज कल जो दुनिया मे हर ओर लड़के लड़कियों का आपस मे आज़ादी के साथ मेल जोल का माहौल बनता जा रहा है इसके नतीजे मे पूरे मानव जगत के लिए ऐसी समस्याएं पैदा हुई हैं जो हमे तबाही की ओर ले जा रही हैं जिनका इलाज बहुत ज़रूरी है। www.wilayat.in