सूरए नूर, आयतें 39-42, (कार्यक्रम 633)

وَالَّذِينَ كَفَرُوا أَعْمَالُهُمْ كَسَرَابٍ بِقِيعَةٍ يَحْسَبُهُ الظَّمْآَنُ مَاءً حَتَّى إِذَا جَاءَهُ لَمْ يَجِدْهُ شَيْئًا وَوَجَدَ اللَّهَ عِنْدَهُ فَوَفَّاهُ حِسَابَهُ وَاللَّهُ سَرِيعُ الْحِسَابِ (39) أَوْ كَظُلُمَاتٍ فِي بَحْرٍ لُجِّيٍّ يَغْشَاهُ مَوْجٌ مِنْ فَوْقِهِ مَوْجٌ مِنْ فَوْقِهِ سَحَابٌ ظُلُمَاتٌ بَعْضُهَا فَوْقَ بَعْضٍ إِذَا أَخْرَجَ يَدَهُ لَمْ يَكَدْ يَرَاهَا وَمَنْ لَمْ يَجْعَلِ اللَّهُ لَهُ نُورًا فَمَا لَهُ مِنْ نُورٍ (40) और जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया उनके कर्म चटयल मैदान में मृग तृष्णा की भांति हैं जिसे प्यासा पानी समझता है, किंतु जब वह उसके पास पहुँचता है तो उसे कुछ भी नहीं पाता। और (केवल) ईश्वर ही को अपने (कर्मों के) पास पाता हैजो उसका हिसाब पूरा-पूरा चुका देता है। और ईश्वर बहुत जल्द हिसाब चुकाने वाला है। (24:39) या फिर (काफ़िरों के कर्म) एक ऐसे गहरे समुद्र में अँधेरों की भांति हैं, जिसमें लहर के ऊपर लहर छा रही है,उसके ऊपर बादल है, एक के ऊपर एक अँधेरे हैं। (इन अंधेरों में फंसने वाला) जब अपना हाथ निकाले तो उसे कदापि देख नहीं सकता। और जिसे अल्लाह ही प्रकाश न दे तो फिर उसके लिए कोई प्रकाश नहीं। (24:40) पिछली आयतों में ईश्वरीय मार्गदर्शन और मार्गदर्शित लोगों के बारे में बात की गई थी जो लोक-परलोक में कल्याण प्राप्त करते हैं और प्रलय में उन्हें ईश्वर की ओर से बड़ा बदला मिलता है। ये आयतें ईमान वालों की स्थिति से काफ़िरों की स्थिति की तुलना करते हुए कहती हैं कि काफ़िर पानी के बदले मृग तृष्णा के पीछे भागते रहते हैं और अंततः प्यास के कारण जान से हाथ धो बैठते हैं जबकि ईमान वाले मार्गदर्शन के सोते तक पहुंच कर उसके शीतल जल से तृप्त होते हैं। ईमान वाले सदैव ईश्वरीय मार्गदर्शन का प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं और नूरुन अला नूर अर्थात प्रकाश पर प्रकाश से लाभान्वित होते हैं जबकि काफ़िर अधिक से अधिक अंधेरे में फंसते चले जाते हैं। ईश्वर ने इन आयतों में काफ़िरों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए दो उपमाएं दी हैं। एक उस प्यासे व्यक्ति की जो तपते मरुस्थल में पानी खोज रहा है किंतु उस तक नहीं पहुंच पाता और दूसरी उस व्यक्ति की जो समुद्र के अंधकार व गहराई में फंस गया है और उसकी बड़ी बड़ी लहरों से बचने का उसके पास कोई मार्ग नहीं है। रोचक बात यह है कि पहला व्यक्ति पानी के अभाव में जान देता है और दूसरा पानी की भयंकर लहरों के कारण मरता है। पहला व्यक्ति वर्षा न होने और पानी न मिलने के कारण मृग तृष्णा से धोखा खाता है जबकि दूसरा काले बादलों के कारण पानी के अंधकार में फंस जाता है। पहला व्यक्ति झूठे प्रकाश का शिकार हो कर रेत को पानी समझता है जबकि दूसरा पानी की बड़ी बड़ी लहरों में फंसता है जो उसकी जान ले लेती हैं। इन आयतों से हमने सीखा कि संभव है कि काफ़िरों के काम का विदित रूप सुंदर हो किंतु उसका वास्तविक रूप बुरा व भयावह है। काफ़िरों के बुरे कर्म, एक काले पर्दे की भांति उनके पूरे अस्तित्व पर छा जाते हैं। सत्य के विरोध के उसके हर प्रयास के साथ ही पिछले अंधकार पर एक अन्य परत बढ़ जाती है और वह अधिक अंधकार में ग्रस्त हो जाता है। काफ़िरों के अच्छे कर्म, मृग तृष्णा और उनके बुरे कर्म अंधकार हैं। यदि ईमान का प्रकाश न हो तो ज्ञान व बुद्धि का प्रकाश अकेले पर्याप्त नहीं है और मनुष्य को मुक्ति नहीं दे सकता। आइये अब सूरए नूर की आयत क्रमांक 41 और 42 की तिलावत सुनें। أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُ مَنْ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَالطَّيْرُ صَافَّاتٍ كُلٌّ قَدْ عَلِمَ صَلَاتَهُ وَتَسْبِيحَهُ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِمَا يَفْعَلُونَ (41) وَلِلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَإِلَى اللَّهِ الْمَصِيرُ (42) क्या तुमने नहीं देखा कि जो भी आकाशों और धरती में हैऔर पंख फैलाए हुए पक्षी भी ईश्वर का गुणगान कर रहे हैं? हर एक अपनी नमाज़ और तसबीह (अर्थात गुणगान) से अवगत है। और जो कुछ वे करते हैं ईश्वर उसे जानने वाला है। (24:41) और आकाशों और धरती का राज्य ईश्वर से ही विशेष है और (सभी की) वापसी ईश्वर ही की ओर है। (24:42) पिछली आयतों में ईमान वालों और काफ़िरों की स्थिति की तुलना के बाद ये आयतें, लोगों की उपासना से ईश्वर के आवश्यकतामुक्त होने की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि संपूर्ण सृष्टि यहां तक कि आकाश के पक्षी भी सदैव ईश्वर का गुणगान करते हैं और उसकी उपासना में लीन रहते हैं। क़ुरआन की शिक्षाओं के अनुसार सृष्टि में मौजूद सभी वस्तुएं चाहे वे सजीव हों या निर्जीव ईश्वर का गुणगान करती रहती हैं क्योंकि उनमें भी एक प्रकार की समझ होती है और वे अपने रचयिता को पहचानती हैं। उनमें से प्रत्येक अपनी विशेष भाषा में ईश्वर का गुणगान करती हैं। इस आयत में और क़ुरआने मजीद की कुछ अन्य आयतों में आकाश के पक्षियों की ओर अलग से संकेत किया गया है। शायद इसका कारण यह है कि उनमें अनेक विचित्र बातें पाई जाती हैं और वे एकेश्वरवाद का स्पष्ट चिन्ह हैं। पक्षी आकाश में अपनी दर्शनीय उड़ान के माध्यम से गुरुत्वाकर्षण शक्ति का मुक़ाबला करते हैं। जब वे दाना व आहार प्राप्त करने के लिए अपने घोंसले से निकलते हैं और आकाश में उड़ान भरते हैं तो वापसी में बिना किसी चिन्ह के अपने घोंसले में पहुंच जाते हैं। इस आयत में ईश्वर के गुणगान के अतिरिक्त, जीवों व पक्षियों की नमाज़ की ओर भी संकेत किया गया है और वह भी ऐसी उपासना जो सभी जीवों की उच्च समझ और सृष्टि के रचयिता के समक्ष उनके नतमस्तक रहने का चिन्ह है। वास्तविकता यह है कि सभी वस्तुओं द्वारा ईश्वर के गुणगान को समझना साधारण मनुष्य की क्षमता से बाहर है और केवल ईश्वर के पैग़म्बर और उसके प्रिय बंदे ही इसे समझ सकते हैं। जैसा कि सूरए इसरा की चौवालीसवीं आयत में ईशवर ने कहा है कि तुम लोग उनके गुणगान को नहीं समझ पाते। अलबत्ता कुछ लोगों का कहना है कि पक्षियों व अन्य वस्तुओं द्वारा ईश्वर का गुणगान, उनके अस्तित्व से जुड़ा हुआ है अर्थात उनका अस्तित्व ही इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर हर प्रकार की त्रुटि से परे है और उसका कोई समकक्ष नहीं है किंतु आयतों का विदित रूप इसके विपीत है। विशेष कर इस लिए कि यह आयत जीवों द्वारा ईश्वर के गुणगान पर बल देती है कि वे पूरी समझ के साथ यह काम करते हैं और उनका यह कार्य अज्ञान व अनिच्छा से नहीं होता। ये आयतें वस्तुतः मनुष्य के लिए एक चेतावनी हैं कि जब आकाश व धरती की सभी वस्तुएं ईश्वर का गुणगान करती हैं तो मनुष्य क्यों निश्चेत है और वह क्यों ईश्वर को भुला बैठा है? वह धरती व आकाश में ईश्वर की महान निशानियों को देखता है किंतु न तो उसकी अनुकंपाओं पर उसका गुणगान करता है और न ही उसके आदेशों का पालन करता है। इन आयतों से हमने सीखा कि सृष्टि की हर वस्तु में समझ है और वह पूरी समझ के साथ ईश्वर का गुणगान करती है और नमाज़ पढ़ती है अतः हमें उन्हें बेसमझ नहीं कहना चाहिए अकारण स्वयं को उनसे श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिए। वही नमाज़ और उपासना मूल्यवान है जो ज्ञान व इच्छा के आधार पर हो व नमाज़ पढ़ने वाला यह जान रहा हो कि वह क्या कह रहा है और क्या कर रहा है। सृष्टि की व्यवस्था का एक संचालक भी है और सृष्टि लक्ष्यपूर्ण भी है तथा आकाश, धरती और धरती में रहने वाले उसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं।