सूरए नूर, आयतें 48-52, (कार्यक्रम 635)
सूरए नूर, आयतें 48-52, (कार्यक्रम 635)
0 Vote
49 View
وَإِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ إِذَا فَرِيقٌ مِنْهُمْ مُعْرِضُونَ (48) وَإِنْ يَكُنْ لَهُمُ الْحَقُّ يَأْتُوا إِلَيْهِ مُذْعِنِينَ (49) أَفِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ أَمِ ارْتَابُوا أَمْ يَخَافُونَ أَنْ يَحِيفَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ وَرَسُولُهُ بَلْ أُولَئِكَ هُمَ الظَّالِمُونَ (50) और जब उन्हें ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता हैताकि पैग़म्बर उनके बीच फ़ैसला करे तो अचानक उनमें से एक गुट मुंह मोड़ लेता है। (24:48) और यदि हक़ उन्हें मिलने वाला हो तो वे उनकी ओर आज्ञाकारी बन कर आ जाते हैं। (24:49) क्या उनके हृदयों में रोग है या वे सन्देह में पड़े हुए हैं या उन्हें यह डर है कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर उनके साथ अन्याय करेंगे? (ऐसा नहीं है) बल्कि वे स्वयं ही अत्याचारी हैं। (24:50) पिछली आयतों में इस्लामी समाज में मिथ्या के ख़तरे की ओर संकेत किया गया था। ये आयतें ईमान के कमज़ोर होने और मिथ्या में ग्रस्त होने की एक निशानी का वर्णन करते हुए कहती हैं कि जब कभी उनके और मुसलमानों के बीच मतभेद होता है और हक़ उनकी ओर हो तो वे पैग़म्बर के फ़ैसले को स्वीकार कर लेते हैं और अपने आपको पैग़म्बर का आज्ञापालक बताते हैं किंतु यदि पैग़म्बर का फ़ैसला उनके विरुद्ध होता है तो वे मुंह मोड़ लेते हैं और उस फ़ैसले को स्वीकार नहीं करते जबकि वे जान रहे होते हैं कि पैग़म्बर, ईश्वर का आदेश बयान कर रहे हैं। आज भी ईमान के बहुत से दावेदारों के लिए कार्यों के सही या ग़लत होने की कसौटी सत्य या असत्य नहीं बल्कि व्यक्तिगत या दलगत हित है। जो भी उनके हित में हो वह सही है और जो भी उनके हित में न हो वह असत्य है। इस प्रकार की भावना, ईमान से मेल नहीं खाती। आगे चल कर आयतें इस दोहरे मानदंड के मुख्य कारणों का उल्लेख करती हैं और कहती हैं कि संसार प्रेम और स्वार्थ की भावना कभी कभी इस सीमा तक पहुंच जाती है कि मनुष्य हर उस बात को नकार देता है जो उसके हित में न हो चाहे वह पैग़म्बर का आदेश ही क्यों न हो। और कभी कुछ लोग इतने निर्लज्ज हो जाते हैं कि वे अपने ऊपर होने वाले तथाकथित अत्याचार को ईश्वर व पैग़म्बर से संबंधित कर देते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ उनकी इच्छा व हितों के अनुसार हो वही न्याय है। इन आयतों से हमने सीखा कि सच्चे ईमान की निशानी ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहना है चाहे वह आदेश हमारी इच्छा के विपरीत ही क्यों न हो। न्यायपूर्ण फ़ैसला कुछ लोगों को नहीं भाता, इस प्रकार से कि यदि वह फ़ैसला पैग़म्बर ने भी किया हो तो वे उसे अत्याचारपूर्ण बता कर स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं। ईश्वर पर संदेह और उसके संबंध में बुरा विचार रखना अत्याचार है। आइये अब सूरए नूर की आयत नंबर 51 और 52 की तिलावत सुनें। إِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤْمِنِينَ إِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ أَنْ يَقُولُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ (51) وَمَنْ يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَيَخْشَ اللَّهَ وَيَتَّقْهِ فَأُولَئِكَ هُمُ الْفَائِزُونَ (52) जब ईमान वालों को ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता है ताकि वे उनके बीच फ़ैसला करेंतो उनका कथन इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं होता किहमने सुना और आज्ञापालन किया और यही लोग तो कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:51) और जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन करे, ईश्वर से डरे और उसकी उद्दंडता से बचे, तो ऐसे ही लोग कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:52) पिछली आयतों में ईश्वर व पैग़म्बर के आदेश के प्रति ईमान के कुछ दावेदारों के अनुचित व्यवहार का वर्णन किया गया और हमने देखा कि वे किस प्रकार असत्य को सत्य समझते थे और कहते थे कि पैग़म्बर ने उनके संबंध में सही फ़ैसला नहीं किया। ये आयतें इस प्रकार के लोगों के जवाब में पैग़म्बर के सच्चे अनुयाइयों की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि सच्चा मोमिन वही है जो ज़बान से भी पैग़म्बर के आदेश को स्वीकार करे और व्यवहारिक रूप से भी उनका आज्ञापालन करे, न ज़बान से उनका विरोध करे और न ही व्यवहार में ढिलाई बरते। स्पष्ट है कि मनुष्य में इस प्रकार की भावना केवल ईश्वर के भय और उसकी उद्दंडता से डर की छाया में ही पैदा होती है और मोक्ष व कल्याण की मंज़िल तक पहुंचा देती है। चूंकि कुछ ईमान वाले यद्यपि ईश्वर के आज्ञापालक हैं किंतु उनका आज्ञापालन एक प्रकार की अप्रसन्नता के साथ होता है इस लिए आगे चल कर आयतें कहती हैं कि यदि सत्य का अनुसरण, पालनहार के समक्ष नतमस्तक और उससे भयभीत रहने की भावना के साथ हो तो मनुष्य जीवन की कठिन परीक्षाओं से सफल हो कर निकलेगा और उसे लोक-परलोक में कल्याण प्राप्त होगा। हदीसों के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम जो सदैव ईश्वर एवं उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहे, इन आयतों के सबसे बड़े उदाहरण माने जाते हैं जिन्हें महान सफलता प्राप्त हुई। इन आयतों से हमने सीखा कि मोक्ष व कल्याण, ईश्वर के आदेशों के समक्ष सिर झुकाने से प्राप्त होता है। यदि हम अपने ईमान को परखना चाहें तो यह देखें कि हम ईश्वर व उसके पैग़म्बर के आदेशों के समक्ष किस सीमा तक नतमस्तक रहते हैं। ईमान वाले व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण बात अपने दायित्व का पालन है चाहे वह उसके हित में हो या उसके लिए हानिकारक हो। ईश्वर के मुक़ाबले में आंतरिक लज्जा और उसकी उद्दंडता से भय, मनुष्य को जीवन के विभिन्न मंचों पर बुराइयों से सुरक्षित रखता है और उसे गंतव्य तक पहुंचाता है। hindi.irib.ir