सूरए नूर, आयतें 58-61, (कार्यक्रम 637)

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لِيَسْتَأْذِنْكُمُ الَّذِينَ مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ وَالَّذِينَ لَمْ يَبْلُغُوا الْحُلُمَ مِنْكُمْ ثَلَاثَ مَرَّاتٍ مِنْ قَبْلِ صَلَاةِ الْفَجْرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُمْ مِنَ الظَّهِيرَةِ وَمِنْ بَعْدِ صَلَاةِ الْعِشَاءِ ثَلَاثُ عَوْرَاتٍ لَكُمْ لَيْسَ عَلَيْكُمْ وَلَا عَلَيْهِمْ جُنَاحٌ بَعْدَهُنَّ طَوَّافُونَ عَلَيْكُمْ بَعْضُكُمْ عَلَى بَعْضٍ كَذَلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمُ الْآَيَاتِ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ (58) وَإِذَا بَلَغَ الْأَطْفَالُ مِنْكُمُ الْحُلُمَ فَلْيَسْتَأْذِنُوا كَمَا اسْتَأْذَنَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ كَذَلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمْ آَيَاتِهِ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ (59) हे ईमान वालो! तुम्हारे दास-दासियों और तुममें जो अभी वयस्कता को नहीं पहुँचे हैं,उन्हें चाहिए कि तीन समयों में तुमसे अनुमति लेकर तुम्हारे पास आएँ, भोर समय की नमाज़ से पहले और जब दोपहर को जब तुम (आराम के लिए) अपने कपड़े उतार देते हो और रात की नमाज़ के बाद, ये तीन समय तुम्हारे (आराम के) लिए परदे व एकांत के हैं। इनके अतिरिक्त (बिना अनुमति के प्रवेश करने पर) न तो तुम पर कोई पाप है और न उन पर क्योंकि वे तुम्हारे पास अधिक चक्कर लगाते हैं अर्थात अधिक आते जाते रहते हैं और तुम्हें एक दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (व) तत्वदर्शी है। (24:58) और जब तुम्हारे बच्चे वयस्कता को पहुँच जाएँ तो उन्हें (भी) चाहिए कि (माता-पिता के कमरे में जाने से पहले) अनुमति ले लिया करें जैसे कि उनसे पहले के लोग अनुमति लेते रहे हैं। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (भी है और) तत्वदर्शी भी। (24:59) सूरए नूर जो व्यभिचारी पुरुषों व महिलाओं को दंडित किए जाने के आदेश से आरंभ हुआ था, अपनी अंतिम आयतों में बच्चों के बीच अनैतिकता को रोकने और परिवार में पवित्रता की रक्षा के लिए कहता है कि घर के दास-दासियों और छोटे-बड़े बच्चों को जो स्वाभाविक रूप से घर के हर कोने में आते जाते रहते हैं, माता-पिता की निजता का ध्यान रखना चाहिए और बिना अनुमति लिए उनके कमरे में नहीं जाना चाहिए। अलबत्ता चूंकि बहुत छोटे बच्चे माता-पिता से अधिक जुड़े होते हैं और प्रायः उन्हीं के साथ रहते हैं इस लिए ये आयतें विशेष रूप से उनके बारे में कहती हैं कि छोटे बच्चों को भी माता-पिता के आराम के समय उनके कमरे में जाने से पूर्व अनुमति लेनी चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को बचपन से ही यह आदेश सिखा दें और इस प्रकार उन्हें पवित्र प्रशिक्षित करें। इन आयतों से हमने सीखा कि दांपत्य संबंध इस प्रकार होने चाहिए कि बच्चों की पवित्रता और माता-पिता की निजता दोनों की रक्षा हो। बच्चों को अपने घर और परिवार से पवित्रता का पाठ सीखना चाहिए। पति को चाहिए कि अपनी दिनचर्या में से कुछ समय पत्नी के लिए विशेष करे और बच्चों को ऐसे समय में उनके बीच रुकावट नहीं बनना चाहिए। आइये अब सूरए नूर की आयत नंबर 60 की तिलावत सुनें। وَالْقَوَاعِدُ مِنَ النِّسَاءِ اللَّاتِي لَا يَرْجُونَ نِكَاحًا فَلَيْسَ عَلَيْهِنَّ جُنَاحٌ أَنْ يَضَعْنَ ثِيَابَهُنَّ غَيْرَ مُتَبَرِّجَاتٍ بِزِينَةٍ وَأَنْ يَسْتَعْفِفْنَ خَيْرٌ لَهُنَّ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ (60) और जो वृद्ध स्त्रियाँ जिन्हें विवाह की आशा न रह गई हो, उन पर कोई दोष नहीं कि वे अपने कपड़े (अर्थात आवरण) उतार कर रख दें, इस शर्त के साथ कि वे अपने श्रृंगार का प्रदर्शन न करें। फिर भी यदि वे इससे बचें तो यह उनके लिए बेहतर है। और ईश्वर सुनने वाला और जानकार है। (24:60) महिलाओं के हिजाब या आवरण के संबंध में मूल आदेश इस सूरे की 31वीं आयत में बयान किया गया है। यह आयत वृद्ध महिलाओं को उस आदेश से अलग करते हुए कहती है कि जो महिलाओं अधिक आयु के कारण विवाह में रुचि नहीं रखतीं और इसी प्रकार कोई पुरुष भी उनसे विवाह नहीं करना चाहता उन्हें इस बात की अनुमति है कि वे नामहरम अर्थात परपुरुष के सामने भी अपना आवरण या चादर उतार दें। अल्बत्ता यह केवल उसी स्थिति में वैध है जब उनके सिर या गर्दन में कोई आभूषण न हो और उन्होंने श्रृंगार न कर रखा हो। स्वाभाविक है कि इस प्रकार की महिलाओं में यौन आकर्षण नहीं रह जाता और उनके द्वारा पर्दा न करने से समाज में किसी प्रकार की बुराई फैलने की आशंका नहीं होती। अलबत्ता यदि ये महिलाएं भी, हिजाब के क़ानून का सम्मान करते हुए, अन्य महिलाओं की भांति ही पर्दा करें तो यह पवित्रता के अधिक निकट है और स्वयं उनके लिए भी अधिक प्रिय है। यह आयत भली भांति यह दर्शाती है कि हिजाब का वास्तविक तर्क, महिलाओं की नैतिक पवित्रता की रक्षा करना है और निश्चित रूप से यह स्वयं उनके ही हित में है। इस्लाम की दृष्टि में उसी पहनावे को हिजाब समझा जाता है जो पुरुषों को उत्तेजित न करता हो। इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के क़ानून लचकदार और वास्तविकताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल हैं अतः लोगों की स्थितियों के परिवर्तित होने के साथ उनमें भी परिवर्तन आता है जैसा कि यह आयत, वृद्ध महिलाओं के लिए हिजाब को सरल बनाती है। महिलाओं के लिए श्रृंगार किए हुए चेहरे के साथ परपुरुषों के बीच उपस्थित होना वैध नहीं है। आइये अब सूरए नूर की आयत नंबर 61 की तिलावत सुनें। لَيْسَ عَلَى الْأَعْمَى حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْأَعْرَجِ حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْمَرِيضِ حَرَجٌ وَلَا عَلَى أَنْفُسِكُمْ أَنْ تَأْكُلُوا مِنْ بُيُوتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ آَبَائِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أُمَّهَاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ إِخْوَانِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَخَوَاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَعْمَامِكُمْ أَوْ بُيُوتِ عَمَّاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَخْوَالِكُمْ أَوْ بُيُوتِ خَالَاتِكُمْ أَوْ مَا مَلَكْتُمْ مَفَاتِحَهُ أَوْ صَدِيقِكُمْ لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَنْ تَأْكُلُوا جَمِيعًا أَوْ أَشْتَاتًا فَإِذَا دَخَلْتُمْ بُيُوتًا فَسَلِّمُوا عَلَى أَنْفُسِكُمْ تَحِيَّةً مِنْ عِنْدِ اللَّهِ مُبَارَكَةً طَيِّبَةً كَذَلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمُ الْآَيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ (61) अंधे, लँगड़े और रोगी के लिए कोई हरज नहीं है और स्वयं तुम्हारे लिए इस बात में कोई हरज नहीं है कि तुम अपने घरों में से खाओ या अपने पिताओं के घरों से या अपनी माताओं के घरों से या अपने भाइयों के घरों से या अपनी बहनों के घरों से या अपने चाचाओं के घरों से या अपनी फूफियों के घरों से या अपने मामाओं के घरों से या अपनी मौसियों के घरों से या जिन घरों की कुंजियां तुम्हारे अधिकार में हों या अपने मित्र के घर से। तुम्हारे लिए इसमें भी कोई हरज नहीं कि तुम मिल कर खाओ या अलग-अलग और अकेले। तो जब भी किसी घर में जाया करो तो एक दूसरे को सलाम किया करो, ईश्वर की ओर सेबरकत वाला और अत्यधिक पवित्र अभिवादन। ईश्वर इस प्रकार अपनी आयतों को तुम्हारे लिए स्पष्ट करता है कि शायद तुम बुद्धि से काम लो। (24:61) इस आयत के तीन भाग हैं, पहला भाग साधारण रोगियों और अंधे व लंगड़े जैसे शारीरिक रूप से अपंग लोगों के बारे में है। इसमें कहा गया है कि ईश्वर ने उन्हें हर उस कार्य से माफ़ कर दिया है जो उनके लिए कठिन हो तथा नमाज़, रोज़े, हज व जेहाद जैसी अनिवार्य उपासनाओं में भी उन्हें छूट दी है अतः पारिवारिक एवं सामाजिक मामलों में भी उन्हें विशेष छूट दी जानी चाहिए। आयत का दूसरा भाग ख़ूनी रिश्तेदारों के बारे में है। आयत कहती है कि माता-पिता, बहन-भाई, फूफी, चाचा, मौसी व मामा इत्यादि के घर से खाने पीने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है और यदि वे घर में न हों तब भी तुम उनके घर में मौजूद खाना खा सकते हो, इसके लिए अनुमति लेना आवश्यक नहीं है और ईश्वर ने तुम्हें इस बात की इजाज़त दे रखी है कि तुम प्रचलित ढंग से उनके घर में मौजूद भोजन में से खा सकते हो। मित्र व परिचित लोग जिनके यहां तुम्हारा आना जाना है या जिन्होंने अपने घर की चाबी तुम्हें दे रखी है ताकि उनकी अनुपस्थिति में तुम उनके घरों की देखभाल करो, इस आदेश में शामिल हैं और उनके घर से भी खाने पीने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है। आयत का तीसरा भाग, घर में प्रविष्ट होने के संबंध में एक मूल एवं सार्वजनिक आदेश है, चाहे वह अपना घर हो या दूसरों का। आदेश यह है कि घर में प्रविष्ट होते समय घर वालों को पूरी आत्मीयता से सलाम किया जाए क्योंकि ईश्वर ने मुसलमानों का अभिनंदन एक दूसरे को सलाम करने में रखा है कि जो शांति व सुरक्षा की कामना है और इससे घर वालों पर से कठिनाइयाँ व संकट दूर होते हैं। इस आयत से हमने सीखा कि लोगों और इस्लामी सरकार के अधिकारियों को हर उस चीज़ को समाप्त करना चाहिए जो रोगियों और अपंगों के लिए कठिनाई का कारण हो, चाहे वह उपचार व उसके ख़र्चों से संबंधित हो, चाहे कार्यस्थल व उसकी परिस्थितियों के बारे में हो या फिर जीवन व उसकी संभावनाओं के बारे में हो। ख़ूनी रिश्तेदारों के एक दूसरे पर कुछ अधिकार होते हैं जिनमें से एक यह है कि वे प्रचलित मात्रा में एक दूसरे का खाना खा सकते हैं। इस्लाम में मित्रों के अधिकारों को परिजनों के अधिकारों के समान ही रखा गया है। सलाम करना, एक पवित्र शिष्टाचार है तथा जीवन में विभूति और बरकत का कारण बनता है। hindi.irib.ir