ज़्यादा वाज़ेह बयान (वहाबियत की उलझन)

वहाबी हज़रात के बर ख़िलाफ़, अरब के मुशरेकीन सिर्फ़ इबादत में शिर्क में गिरफ़तार नहीं थे, या दूसरे लफ़्ज़ों में “कल्मा” “ऐलाह” तमाम जगहों पर माबूद के माइनी में नहीं है बल्कि कभी कभी ख़ालिक़ के माइनी में भी इस्तेमाल होता है जैसा कि क़ुरआने मजीद का इरशाद हैः- امّ التّخذوا آلهةً من الارض هم ینشرون لو کان فیهما آلهة أالّا الله لفسدتا فسبحان الله ربّ العرش عما یصفون (सूर-ए-अंबिया आयत, 21-22)

"क्या इन लोगों ने ज़मीन से ही ख़ुदा चुन लिया है (जो ख़ल्क़ करते है) मुनतशिर करते हैं? अगर आसमान और ज़मीन में अल्लाह के अलावा दूसरे ख़ुदा होते तो तबाह हो जाते (और दुनिया का निज़ाम ख़राब हो जाता) आसमान का ख़ुदा इन तमाम बातों से जो यह लोग कहते हैं अलग और पाक है” इन आयतों में अच्छी तरह से “आलेहतन” जो जमा है ऐलाह की, ख़ालिक़ के माइनी में आया है और आयत में “ख़ालक़ियत की तौहीद” की बात हो रही है न कि इबादत में तौहीद की। दूसरी आयत में यही माइनी थोड़ा और खुल कर बयान किये गऐ हैं-- ما اتّخذ الله من ولد وما کان معه من أله أذاً لّذهب کلّ أله بما خلق و لعلا بعضهم علی بعض سبحان الله عمّا یصفون عالم الغیت و الشّهادة فتعالی عمّا یشرکون (सूर-ए-मोमेनून, आयत 91-92) ख़ुदा वन्दे आलम ने हर गिज़ अपने लिये कोई बेटा नहीं चुना और उसके साथ कोई दूसरा ख़ालिक़ नहीं है अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी मख़लूक़ात के निज़ाम को चलाता और उसके बारे में सोचता और फिर कुछ ख़ुदाओं पर बरतरी ले जाने की कोशिश करते (और दुनिया तबाह और बरबाद हो जाती) ख़ुदा इन तमाम बातों से पाक है जो वोह लोग कहते हैं वोह हाज़िर और ग़ायब का जानने वाला है और उन तमाम से जिन को उसका शरीक क़रार दिया जाता है बरतर और बुलन्द है। इन आयतों में भी एक ख़ुदा के अलावा दूसरे ख़ालिक़ के वुजूद की भी नफ़ी की गई है और वोह भी लफ़्ज़े ऐलाह के ज़रीये नफ़ी की गई है। यानी अगर इस के अलावा कोई दूसरा ख़ालिक़ होता तो दुनिया का निज़ाम ऊपर नीचे हो जाता (यानी दुनिया तबाह और बरबाद हो जाती) इस लिहाज़ से यह आयत कई ख़ुदाओं दलालत करती हुई अरब के मुशरेकीन के ऐतेक़ाद को रोशन कर रही है जैसा कि इरशाद होता हैः- فتعالی عمّا یشرکون इस लिहाज़ से इस्लाम की दावत को सिर्फ़ इबादत में तौहीद पर मुशतमिल कर के तौहीद की दूसरी क़िस्मों से आखें बचाना बहुत बड़ी ग़लती और क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। सारी दलीलें इस बात का पता देती हैं कि “वहाबी हज़रात” तौहीद व शिर्क के मसअले में सिर्फ़ अपने ही समझे हुऐ माइनी और नज़रियात से लगाओ रखते हैं और दूसरी आयतें जो उन के हासिल किये हुऐ नतीजों और नज़रियात के ख़िलाफ़ हैं बड़ी आसानी से उन्हें नज़र अंदाज़ कर दिया। जबकि उन में से अकसर लोग ज़ाहिरन क़ुरआन के हाफ़िज़ थे लेकिन अफ़सोस कि सिर्फ़ इन्हीं कुछ आयतों को अपना नज़रिया क़रार दिया और हाफ़िज़े क़ुरआन होने का मतलब यह नहीं कि वोह क़ुरआन को समझते भी हों इसी तरह दूसरी आयतों से भी मालूम होता है कि मुशरेकीन का एक गिरोह बुतों की इबादत और ख़ालक़ियत से बढ़ कर उन की रबुबुयत यानी अपनी तक़दीर में इन ख़ुदाओं को असर अंदाज़ मानता था और एक तरह से उन की यह बेहूदा फ़िक्र थी कि बुत उन के मुख़ालेफ़ीन पर ग़ुस्सा और नाराज़ होते हैं और उन को मजबूर कर देंगे और जो लोग उन को मानते हैं उन की वोह मदद करते हैं उन के नसीब को अच्छा बनाते हैं मिसाल के तौर पर हूद के ज़माने में मुशरेकीन के ख़याल को क़ुरआन इसी तरह बयान करता हैः- أن نقول الّا اعتراک بعض آلهتنا بسوء قال أنّی أشهد الله و اشهدو أنّی بری ممّا تشرکون (सूर-ए-हूद आयत, 54) “हम (तुम्हारे बारे में) सिर्फ़ यह कहते हैं किः हमारे कुछ ख़ुदाओं ने तुम को नुक़सान पहुंचाया है (और तुम्हारी अक़्ल को अड़ा दिया) (हूद नबी) कहते हैः मैं ख़ुदा को गवाह बनाता हूँ और तुम भी गवाह रहना कि मैं उन तमाम चीज़ों से जिन को तुम ख़ुदा का शरीक क़रार देते हो, बेज़ार हूँ, वोह लोग इस बात का ख़याल करते थे कि बुत कभी ग़ुस्सा होते हैं और नुक़सान पहुंचाते हैं और कभी ख़ुश होते हैं तो फ़ाएदा पहुंचाते हैं और बरकत अता करते हैं यानी बुत परस्त, बुतों को अपनी तक़दीर और नसीब में असर अंदाज़ समझते थे और उन को एक क़िस्म से रब मानते थे और यह अकसर लोगों का अक़ीदा था।” और मशहूर शाएर जो जाहलियत के दौर में “बनी हनीफ़ा” क़बीले की बुराई करता है इस मुनासेबत से कि उन लोगों ने खजूर का बुत बनाया और जिस साल क़हत पड़ा तो वोह लोग उसको खा गऐ यह भी हमारे दावे पर एक सबूत है। اکلت حنیفه ربّها عام التقحم و المجاعة لم یحذروا من ربّهم سوء العواقب و التباعة बनी हनीफ़ा के क़बीले ने क़हत और सख़्ती के साल अपने रब को खा लिया और अपने परवर्दिगार से नहीं डरे। यहाँ रब का लफ़्ज़ बुतों पर आया है और बुत खाने वालों को उन के बुरे काम के अंजाम से डराया गया है कि कहीं बुत उन पर ग़ुस्सा न हो जायें और नुक़सान न पहुंचा बैठें। दूसरा शाएर कहता हैः أربّ یبول الثعلبان برأسه क्या वोह बुत जिस पर लोमड़ी पैशाब करती है रब हो सकता है? (बिहारुल अनवार, जिल्द 3 पेज, 253) बुत परस्ती की पूरी तारीख़ में “रब का लफ़्ज़” और अरबाब का बुतों को मानना इस बात का गवाह है कि वोह लोग इस बात का अक़ीदा रखते थे कि कुछ दुनियावी कामों का निज़ाम बुतों के हाथों में है। इसी लिये जब जनाबे यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने मुशरिक क़ैदियों को तौहीद की दावत दी तो फ़रमायाः یا صاحبی السجن ء ارباب متفرّقون خیر أم الله الواحد القهّار (सूर-ए-यूसुफ़, आयत, 39) ऐ मेरे क़ैद ख़ाने के दोस्तो! क्या अलग अलग ख़ुदा अच्छे हैं या एक क़ादिर व तवाना ख़ुदा (रब की जमा अरबाब पर ध्यान दें) दूसरी मिसाल रसूले ख़ुदा (स.) ने क़ुरआने मजीद की वज़ाहत के बारे में मुशरेकीने अहले किताब को ख़िताब कर के फ़रमायाः- ऐ रसूल कह दीजिये! ऐ अहले किताब ! आओ इस एक बात की तरफ़ जो हम दोनों में पाई जाती है कि सिवाए एक ख़ुदा के किसी दूसरे की इबादत न करें और किसी को उसके बराबर क़रार न दें और हम में कुछ, कुछ को एक ख़ुदा के अलावा रब की हैसियत से क़बूल न करें और जब कभी (इस दावत से) मुंह मौड़ लें तो कह दें कि गवाह रहना, हम मुसलमान हैं। अरबाब का लफ़्ज़ खुल्म खुल्ला इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि वोह लोग अल्लाह की रबूबियत के मसअले में भी मुबतला थे। इसी सूरह की दूसरी आयत में पढ़ते हैं:---- “ولا یأمر کم أن تتّخذوا الملائکة و النّبیّین أرباباً أیامرکم بالکفر بعد اذ انتم مسلمون” (सूर-ए-आले इमरान आयत, 80) ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हें इस बात का हुक्म नहीं देता कि फ़रिशतों और पैग़म्बरों को अपना ख़ुदा बना लो क्या मुसलमान होने के बाद तुम को कुफ़्र की दावत दे देगा? बहुत दूर न जायें क़ुरआने मजीद जहलियत के ज़माने के बुत परस्तों से कहता हैः- والتخذوا من دون الله آلهة لعلّهم ینصرون क्या उन्हों ने अल्लाह के अलावा अपने ख़ुदा चुन लिये हैं ताकि उन की मदद करें? यानी वोह लोग रबुबियत और अपनी तक़दीर दोनों की तासीर में शिर्क में मुबतला थे और बुतों के लिये हद से ज़्यादा तासीर को क़बूल करते थे। बुत परस्तों से मुक़ाबले में जनाबे इब्राहीम (अ.) की दास्तान में पढ़ते हैं शुरु में उन्हीं की ज़बान में सितारा और चाँद व सूरज को तीन बार हाज़ा रब्बी से कलाम किया ताकि उन के अक़ीदे को उन्हीं की रविश से बातिल क़रार दे सकें। (सूर-ए-अनआम आयत, 76-78) यहाँ भी हाज़ा रब्बी का जुमला इस बात का पता देता है कि बाबुल के बुत परस्त लोग चाँद व सूरज और सितारों को अपनी ज़िन्दगी में बहुत अहमियत देते थे इसी तरह नमरूद के सामने आप की बात चीत की भी मिसाल पैश की जा सकती है। (सूर-ए-बक़रा आयत, 258) तो फिर नतीजा यह निकला कि लफ़्ज़े ऐलाह सिर्फ़ माबूद के माइनी में नहीं है बल्कि कभी ख़ालिक़ भी रब के माइनी में भी इस्तेमाल होता है और मुशरेकीन सिर्फ़ “इबादत” में ही शिर्क में मुबतला नहीं थे बल्कि ख़ालक़ियत और रबुबियत में भी मुशरिक थे। लिहाज़ा जब कभी क़ुरआन यह कहता है कि अगर उन से सवाल किया जाये कि दुनिया का ख़ालिक़ कौन है तो कहते हैं ख़ुदा है! मक़सद यह है कि वोह आसमान व ज़मीन का ख़ालिक़ है क्यों कि क़रआनी आयतों में आपस में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं तो क्या उन जहालत के नतीजों से जो कि वहाबियत के रेहबर क़ुरआनी आयात ख़ास कर लफ़्ज़े ऐलाह से लेते हैं, मुसलमानों के ख़ून को हलाल समझा जा सकता है और उन के माल व असबाब को लूटा जा सकता ह, क्या हक़ीक़त में मुसलमानों की जान व माल इतनी ससते है?