सवेरे-सवेरे-२४
सवेरे-सवेरे-२४
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पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि “जो व्यक्ति पाप करता है तो बुद्धि का कुछ भाग उसके हाथ से निकल जाता है जो कभी वापस नहीं आता।“ यह कथन देखने के बाद हमें बहुत से लोगों से सुने यह शब्द याद आ गये कि मेरी मत मारी गयी थी जो यह काम कर बैठा। तुम्हारी बुद्धि कहां चली गयी थी जो ऐसा काम कर डाला। इस से अर्थ यह निकलता है कि जिस प्रकार कोई भला काम करके मनुष्य को अपने भीतर एक विशेष प्रकार के आनन्द का आभास होता है और उसे एक प्रकार की शक्ति और उर्जा मिलती है ठीक उसी प्रकार पाप और बुराई की स्थिति में मन बोझिल हो उठता है और सकारात्मक ऊर्जा का स्थान नकारात्मक भावनायें ले लेती हैं जिससे बुद्धि और सोचने की शक्ति को नुक़सान पहुंचता है। मेरे विचार में शरीर के भीतर हारमोन्स के स्राव में या हृदय गति या मानसिक स्थिति किसी न किसी में परिवर्तन आता ज़रूर है। वरना झूठ पकड़ने वाली मशीन झूठ को कैसे पकड़ती? किस प्रकार अच्छे माता-पिता बनें: बच्चों का लालन पालन और व्यवहारिक एव चारित्रिक प्रशिक्षण हर समाज के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है क्योंकि बच्चे ही हमारा भविष्य होते हैं और बच्चों पर सबसे पहले और सबसे अधिक प्रभाव माता-पिता का ही पड़ता है। अधिकतर लोग इसी कारणवश सदैव इस बात की खोज में रहते हैं कि सफल और अच्छे माता-पिता बनने का मार्ग कैसे ढूंढ़े? चूंकि हर परिवार दूसरे से भिन्न होता है अत: उन सबके लिये एक मार्ग या एक नुस्ख़ा नहीं बताया जा सकता। इस प्रकार यह विषय काफ़ी कठिन प्रतीत होता है और इसी लिये इस पर काफ़ी अध्ययन व शोध कार्य किया गया है। यदि हम यह चाहते हैं कि एक स्वस्थ, प्रसन्नचित्त एवं सफल माना जाने वाला बच्चा समाज को भेंट करें तो हमें चाहिये कि अच्छे माता-पिता बनने का ज्ञान और दक्षता प्राप्त करें। जबकि इसमें भी परिपूर्णता तक पहुंचने के लिये बड़ी मेहनत और लगन की आवश्यकता होती है। अच्छे माता-पिता बनने के लिये कुछ नियमों पर कार्यबद्ध होना पड़ता है: १) हमें सब से पहले तो यह समझना और इस बात के लिये तय्यार होना होगा कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये परिश्रम करें। प्रति दिन इस बात को दृष्टि में रखना होगा कि बच्चे के साथ हमारा व्यवहार कैसा था और कैसा होना चाहिये। अपने पिछले अनुभवों से पाठ लेते हुये अपने व्यवहार को अच्छा बनाइये। २) अपने उन कार्यों को, जो बच्चों से संबंधित हैं प्राथमिकता दिया करें। यद्यपि नौकरी पेशा माता-पिता के लिये यह काम बहुत कठिन है परन्तु अपने बच्चों के लिये आपको इतनी क़ुरबानी तो देना ही होगी। आप जिस तरह अपने बच्चों की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं उसी प्रकार उसकी मानसिक आवश्यकताओं पर भी ध्यान दें। ३) दिन में कई बार बच्चों के प्रति अपने स्नेह को दर्शायें। इस विषय में हर संस्कृति में अलग-अलग तरीक़ा होता है। जबकि बच्चों को चूमना और उन्हें छाती से लगाना तो हर संस्कृति में मौजूद है। परन्तु याद रखें कि बच्चे ने अगर कोई ग़लत काम किया या परिवार के किसी क़ानून को तोड़ा हो तो उसे इस बात से रोकें परन्तु उसकी आलोचना के बजाये उस काम की आलोचना करें। ४) हर समाज के अपने कुछ नियम होते हैं। आप परिवार के लिये भी विशेष नियम बनायें। बच्चा सामाजिक क़ानूनों की सहायता से वास्तविक जीवन सीखता है। पारिवारिक क़ानूनों से उसे यह पता चलेगा कि किस प्रकार अपने को परिवार के अनुसार ढाले। फिर यह भी कि आपके मन में इन प्रश्नों का उत्तर मौजूद होना चाहिये कि मेरा बच्चा कहां है? और क्या कर रहा है? ५) इस बात का सदैव ध्यान रखें कि परिवार में आप जो नियम बनायें वह स्पष्ट और सुदृढ़ हो वरना बच्चा चकरा जायेगा। बच्चे को यह भी समझा दें कि आपके नियम तार्किक हैं, केवल शक्ति और बल के आधार पर नहीं बनाये गये हैं। इसके अतिरिक्त माता-पिता दोनों के क़ानून समान हों। ६) बच्चे को उसकी आयु के अनुसार अपने फैसले से अवगत करायें। कम आयु में शब्दों की आवश्यक्ता नहीं होती, न डांटने की ज़रूरत होती है बल्कि आपका व्यवहार उसे सब कुछ सिखा देता है। ७) बच्चों के प्रशिक्षण में चीख़ना-चिल्लाना, गाली देना और मार-पीट सबसे अधिक हानिकारक होते हैं। इससे बच्चे को शारीरिक और मानसिक हानि जो होती है वह तो अपनी जगह पर है माता-पिता को जीवन भर उसका पछतावा भी रहता है। सबसे बढ़ कर यह कि बच्चा यही व्यवहार आपसे सीख लेता है। ८) अपने बच्चे की आयु के अनुसार उससे व्यवहार कीजिये। बहुत जल्दी बच्चे को बड़ा समझने लगना या बड़े बच्चों से छोटे बच्चों जैसा व्यवहार दोनों उसके व्यक्तित्व के लिये हानिकारक है। ९) बच्चों के साथ जैसा व्यवहार किया जाता है, बच्चे भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। अत: आप बच्चों का वैसे ही सम्मान करें जैसा दूसरों का करते हैं। उससे सम्मान के साथ बात करें, उसकी सोच और बातों को ध्यान से सुनें और एक मित्र की भान्ति व्यवहार करें। १०) और अन्त में यह कि बच्चे को स्वाधीन बनायें परन्तु उसे उसकी सीमाओं का भी ज्ञान होना चाहिये। दस बारह वर्ष की आयु से उससे अपने कामों के बारे में तथा पारिवारिक विषयों में परामर्श लें। इससे उसमें यह भावना जागेगी कि आप उसे अपना समझते हैं, बुद्धिमान समझते हैं और परिवार के लिये उसका महत्व है। इसके अतिरिक्त वह यह भी सीखेगा कि अपने परिवार के लोगों से सलाह लेकर काम करना चाहिये। इसी तरह बच्चे की आयु के अनुसार उसे घर के कामों में अवश्य सम्मिलित करें ताकि वह स्वाधीन भी बने और दूसरों की मेहनत और परिश्रम के मूल्य को भी समझे। अपने जवाबों और प्रतिक्रियाओं को कभी सामान्य और मज़ाक़ के रूप में न लें और यह न सोचें कि हर बात का सदैव जवाब देना ही चाहिये क्योंकि बड़े बूढ़ों का कहना है कि जवाब न देना स्वयं एक जवाब है। याद रखें कि आप जो भी जवाब देते हैं वह कभी न कभी किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं आप के पास पलटता है। इस लिये: - सलाम का जवाब सलाम से दें, - आभार का उत्तर विनम्रता से दें, - द्वेष का उत्तर संयम से दें, - झूठ का जवाब सच से दें, - शत्रुता का जवाब मित्रता से दें, - क्रोध का उत्तर संयम से दें, - अशिष्ट व्यवहार का उत्तर मौन से दें, - घर वालों की कृपालु दृष्टि का उत्तर मुस्कान से दें, - गुनाह का जवाब क्षमा से दें। http://hindi.irib.ir/