सवेरे-सवेरे-२६

चुटकुले हमारे प्रतिदिन के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यह मनुष्य को प्रसन्नचित करते, उन्हें हंसाते और लोगों के बीच निकटता और स्नेह भावना उत्पन्न करते हैं। परन्तु इन सारी सकारात्मक बातों के लिये आवश्यक है कि आप अपने चुटकुलों में आयु , समय, वातावरण, सम्मान और उनलोगों के मानसिक स्तर और सोच को भी दृष्टि में रखें जिन्हे चुटकुला सुनाने या कोई हंसानं वाली बात कहने जा रहे हैं। अपने बात को अधिक स्पष्ट करने के लिये एक उदाहरण देते चलें: -         आप क्लास में हैं और प्रोफ़ेसर पढ़ा रहे हैं। विषय बहुत ही गम्भीर है और प्रोफ़ेसर भी थके हुए लग रहे हैं । ऐसे में कभी अचानक कोई व्यक्ति कोई चुटकुला बोल देता है और वह किसी को पसन्द नहीं आता जब कि हो सकता है कि ऐसी ही किसी पस्थिति में कोई व्यक्ति बड़े साधारण शब्दों में कोई बात कहे और उससे पूरे वातावरण में प्रसन्नता फैल जाये। -         इस भिन्नता का कारण कया है?  इसका कारण यह है कि कुछ व्यक्ति जोक और चुटकुले बोलने में उन सीमाओं का ध्यान नहीं रखते जो किसी चुटकुले के लिये आवश्यक होती हैं।   जैसे: (१) अपने और दूसरों के स्थान को न पहचानना (२) शब्दों और विषय दोनों में शिष्टाचार पर ध्यान न देना (३) किसी के अपमान के उद्देश्य से कोई बात चुटकुले के रूप में कहना आप यदि वास्तव में हंसमुख हैं और इंसाने वाली बातें करते हैं तो इन बातों का ध्यान रखें जो अभी हमने कही हैं।   इस बात का भी अवश्य ध्यान रखें कि अधिक मज़ाक़ करने से लोग आप से बहुत ज़्यादा खुल कर बात करने और मज़ाक़ करने लगते है और हर एक को अपनी और आप की सीमाओं का पता नहीं होता इस लिये यह स्थिति आपके व्यक्तित्व के भारीपन को कम कर देती है और लोगों के बीच आपका सम्मान कम होने लगता है। अत: मज़ाक़ करने और चुटकुले बोलने में आप सब को बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिये!!   पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन(अ) का कथन है: -         आपकी सन्तान का आप पर यह अधिकार है कि आप यह जानें कि उसे आपके अस्तित्व से अस्तित्व मिला है। जीवन की अच्छाइयों और बुराइयों में वह आप पर निर्भर है। उसे शिष्टाचार सिखाना और प्रशिक्षित करना आपका उत्तर दायित्व है। ईश्वर की ओर उसका मार्गदर्शन करें और उसके आदेशों के पालन में अपनी सन्तान की सहायता करें। अपनी सन्तान के प्रशिक्षण में आपके भीतर सदैव उत्तरदायी होने की भावना रहनी चाहिये। -         अपने बच्चों के प्रशिक्षण में आम तौर पर लोग या बहुत कड़ाई से काम लेते हैं और उनसे : ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे सन्तान उनकी दासता में है और उसे केवल माता पिता के कहने पर ही चलना चाहिये। या फिर सन्तान पर इतनी अधिक प्रेम की वर्षा करते और ध्यान देते हैं कि उसे सामाजिक जीवन बिताने में ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। -         उदाहरण स्वरूप कुछ मातायें यह कहती दिखायी देती हैं कि मैं अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती हूं। बेटी बेचारी बहुत थकी हुयी कालेज से आती है, काम करने का उसमें दम ही नहीं होता, फिर पढ़ाई भी बहुत करना होती है। स्पष्ट सी बात है कि मैं ऐसे में यदि उससे कोई घर का काम करने को कहने तो यी उस पर अत्याचार होगा। अभी सत्तरह वर्ष की ही तो है, अभी तो पूरा जीवन पड़ा है दूसरे कामों के सीखने के लिये। हमारे समय में लड़कियों में अधिक शक्ति होती थी। अब तो मैं देखती हूं मेरी बेटी बिचारी इतनी जल्दी थक जाती है कि क्या बताऊं। उसके कपड़े कहां हैं, जूते कहां हैं। यह सब मैं ही बताती हूं। -         ऐसी सन्तान चाहे वह लड़की हो या लड़का, जब अपना जीवन आरम्भ करेगी तो उसे कितनी कठिनाइयों का सांमाना होगा? और जब उसे इस बात का आभास होगा कि उसे छोटे छोटे कामों में कठिनाई और थकन होती है तो इसके नतीजे में उसे कितनी लज्जा और अवसाद होगा। इसी लिये कहा जाता है कि बच्चे में आरम्भ से ही एक तो अपने सृष्टि कत्ती के प्रति प्रेम और आस्था उत्पन्न करनी चाहिये ताकि आत्म निर्भरता के साथ साथ वह ईश्वर पर निर्भर होना भी सीखें  और सही मार्ग के चयन में उसे जीवन में कठिनाई न हो। परन्तु यह बात वह आपके आचरण और व्यवहार से सीखता है। यह बात आप सदैव याद रखे। -         दूसरे यह कि बच्चे की आयु के अनुसार उससे काम लिया करें। दो ढ़ाई साल का बच्चो चम्मच या प्लेट लाने में रूचि यदि रखता है तो ऐसे छोटे छोटे काम करने को कहें। -         चार पांच साल का बच्चा घर में फैले खिलौने या कपड़े और जूते आदि समेटने में आपकी सहायता कर सकता है। सलाद का सामान लाना और दस बारह वर्ष की आयु में आपके साथ मिलकर सलाद बनाना तरकारियां काटना आदि उसके लिये रूचिकर काम हैं। आप बच्चों को इनसे दूर न रखें। यही छोटे छोटे काम भविष्य की ज़िम्मेदारियों की भूमिका बनते हैं और साथ ही बच्चों में आत्म विश्वास उत्पन्न करते हैं। -         बच्चों के पालन पोषण में यह स्थिति कभी न आने दें कि वह काम और परिश्रम को आप का उत्तदायित्व समझे। उसे ज्ञात होना चाहिये कि उसके लिये दूसरे जो परिश्रम कर रहे हैं वही एक दिन उसे भी करना होगा। उसे आभार प्रकट करने की कला भी सिखायें!!   -         इस प्रकार से प्रशिक्षित किये गये बच्चे अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक तीनों प्रकार के जीवन में सफल होते हैं और माता पिता के महत्व को भी समझते हैं। http://hindi.irib.ir/