इस्लामी संस्कृति व इतिहास-१२

चिकित्सा विज्ञान भी खगोल शास्त्र की भांति अति प्राचीन ज्ञानों में से एक है जो मुसलमानों के बीच प्रचलित हुआ और जिस पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। एक हदीस में है कि ज्ञान के दो प्रकार हैः इल्मुल अबदान व इल्मुल अदियान अर्थात शरीर का ज्ञान और धर्म का ज्ञान, इससे इस्लाम में चिकित्सा विज्ञान के महत्व का अनुमान किया जा सकता है।चिकित्सा विज्ञान की प्रगति में मुसलमानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुसलमानों को चिकित्सा विज्ञान संबंधी जो नुस्ख़े मिले वो बोक़रात और जालीनूस जैसे यूनानी हकीमों के नुस्ख़े थे जिनका यूनानी भाषा से अरबी भाषा में अनुवाद किया गया किंतु मुस्लिम चिकित्सकों को अपने क्षेत्रों में जिन बीमारियों का सामना था उनमें कुछ बीमारियों एसी थी जो इन्हीं क्षेत्रों से विशेष थीं जिनका उल्लेख यूनानी हकीमों के नुस्ख़ों में नहीं था। मुस्लिम विद्वान ज़करिया राज़ी ने अपनी पुस्तक अलहावी में सात सौ जड़ी बूटियों और उनके उपचारिक गुणों का उल्लेख किया है जबकि यूनानी विद्वान देविसकोरीदस ने अपनी पुस्तक में पांच सौ जड़ी बूटियों का ही उल्लेख किया है। चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में अलहावी एक महान रचना है। इस पुस्तक में विभिन्न बीमारियों के बारे में बड़े विस्तार से बात की गई है। इस पुस्तक के विभिन्न भागों में जिन बीमारियों का उल्लेख किया गया है और उनके उपचार के लिए जो नुस्ख़े सुझाए गए हैं उनकी संख्या जालीनूस, बोक़रात तथा दूसरे यूनानी विद्वानो की पुस्तकों से बहुत अधिक हैं। इस्लामी काल में यूनानी और भारतीय विद्वानों की पुस्तकों के अनुवाद के साथ ही चिकित्सा विज्ञान में बड़ा विस्तार हुआ। पांचवीं शताब्दी ईसवी में रोम शासन ने अपने देश से नस्तूरी ईसाइयों को बाहर निकाल दिया। नस्तूरी ईसाई वहां से ईरान आ गए और जुन्दी शापूर में अपना विज्ञान केन्द्र खोला। उन्होंने इस नगर में चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देना आरंभ कर दिया और यूनानी चिकित्सा शैली को भारतीय चिकित्सा शैली से मिलाकर जो पहले ही ईरान में प्रचलित थी एक व्यापक चिकित्सा शैली तैयार कर ली। इस केन्द्र से पढ़कर निकलने वाले चिकित्सकों ने चिकित्सा विज्ञान तथा उपचार केन्द्रों के विकास में बड़ा योगदान दिया। इस्लामी काल में चिकित्सा विज्ञान के विकास में जिन संस्थाओं ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई उनमें जुन्दी शापूर विश्वविद्यालय भी प्रमुख है। जुन्दी शापूर में बड़े अच्छा अस्पताल और चिकित्स विश्वविद्यालय था। यहां संस्कृत और यूनानी भाषा की चिकित्सा पुस्तकों का अनुवाद किया जाता था। जुन्शी शापूर के अस्पताल ईरान के प्राचीनतम अस्पताल हैं जो शापूर द्वितीय के शासन काल में बनाए गए थे। यह अस्पताल ईरानी चिकित्सकों और शिक्षकों के परिश्रम से तीन शताब्दियों तक चलते रहे और इन्हें इस्लामी क्षेत्रों का सबसे बड़ा चिकित्सा केन्द्र माना जाता था। इन केन्द्रों में विख्यात चिकित्सक शिक्षार्थियों को चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देते थे और रोगियों का उपचार करते थे। जुन्दी शापूर में चिकित्सा विज्ञान के विकास में कुछ परिवारों की मूल भूमिका रही। इनमें एक बख़्तशूअ परिवार था। दूसरी शताब्दी हिजरी के मध्य से पांचवीं शताब्दी हिजरी के मध्य तक इस परिवार के बारह विद्वान और चिकित्सा विशेषज्ञ अब्बासी शासकों के चिकित्सक और सलाहकार बने और वे अनुवाद के काम भी लीन रहे। वे अब्बासी शासकों के दरबार में नई पुस्तकों का अनुवाद करते और रोगियों का उपचार करते थे। बरमकी शासकों ने बग़दाद में अपने नाम से एक अस्पताल बनाया और एक भारतीय चिकित्सक इब्ने देहन को उसका प्रमुख बना दिया। उन्होंने से इब्ने देहन से कहा कि वो संस्कृत भाषा की पुस्तकों का अरबी में अनुवाद करे। यही अस्पताल अन्य स्थानों पर अस्पतालों के निर्माण के लिए आदर्श बन गया। अब्बासी शासन के आरंभिक वर्षों मे ज्ञान विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र पर ध्यान दिया गया और विशेष रूप से यूनानी पुस्तकों पर काम हुआ। वर्ष 148 हिजरी क़मरी में अब्बासी शासक मंसूर ने बीमार हो जाने के बाद बख़तीशूअ को बुलाया। बख़तीशूअ ने ख़लीफ़ा का उपचार करके उसे ठीक कर दिया। बख़तीशूअ के परिवार के लोग बाद में भी चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय रहे और बग़दाद में ही लोगों के उपचार में व्यस्त रहे। जब अनुवाद का काम बहुत व्यापक स्तर पर होने लगा तो यूनान और रोम के चिकित्सा नुसख़े का भरपूर उपयोग किया गया। सबसे महत्वपूर्ण यूनानी पुस्तक जिसका अरबी भाषा में अनुवाद किया गया देवेसकोरीदस की पुस्तक थी। तीसरी शताब्दी हिजरी में बैतुल हिकमह के नाम से एक संस्था की स्थापना हुई जहां बहुत से विद्वान चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद करने लगे। इस केन्द्र का प्रख्यात अनुवादक हुनैन इब्ने इसहाक़ अब्बादी थे। हुनैन पुस्तकों का अपने सहयोगियों और विशेष रूप से अपने पुत्र इसहाक़ के साथ मिलकर अरबी और सरियानी भाषा में अनुवाद करते थे। अपनी मौत के समय उन्होंने बताया कि उन्होंने जालीनूस की 95 पुस्तकों का सरियानी और 34 पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद किया। हुनैन ने अनुवाद के साथ ही कुछ पस्तकें स्वयं भी लिखीं। अलमसायल फी तिब लिलमुतअल्लेमीन उनकी विख्यात पुस्तक है। उन्होंने आंखों की बीमारियों के बारे में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम अलअशर मक़ालात फ़िल एन है। इस प्रकार हुनैन और दूसरे अनुवादकों ने अपने अनुवादों और लेखनों से इस्लामी चिकित्सा विज्ञान में नए शब्द भी परिचित कराए। जुन्दी शापूर के विश्वविद्यालय में जो नस्तूरी चिकित्सक सक्रिय थे उनमें एक इब्ने मासवैह थे जिनका पूरा नाम अबू यूहन्ना मासवैह था। उन्होंने अरबी भाषा में कई महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं जिनमें ज्वर के अनेक प्रकारों, कुष्ठ रोग, मेलनकोलिया, आंखों के रोगों और आहार संबंधी बिंदुओं का उल्लेख किया गया है। अबुल हुसैन अली इब्ने सहल इब्ने तबरी भी विख्यात चिकित्सकों में थे। उन्होंने अपनी पुस्तक फ़िरदौसुल हिकमह में यूनानी, रोमी तथा भारतीय चिकित्सा शैलियों को विस्तार से बयान किया है। इस पुस्तक का बाद के समय में चिकित्सा विज्ञान पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। रिस्क फ़ैक्टर और दवाओं की पहचान के संबंध में इब्ने तबरी ने बड़ी मूल्यवान और उपयोगी बातें बताई हैं। तीसरी शहाब्दी हिजरी के अतिंम वर्षों तक चिकित्सा विज्ञान का आधार बोक़रात और जालीनूस के बताए हुए नुसख़े थे किंतु इसी शताब्दी में एक नई चिकित्सा पुस्तकें भी प्रचलित हुईं जिसका नाम तब्बुन्नबवी था यह पुस्तकें एक नई चिकित्सा शैली पर आधारित थी। यह पुस्तकें धर्मगुरू लिखते थे। वे पैग़म्बरे इस्लाम के काल की चिकित्सा शैली तथा क़ुरआन और हदीस में उल्लेखित चिकत्सा उपायों को यूनानी चिकित्सा शैली से अधिक उपयोगी मानते थे और कभी कभी दोनों शैलियों को मिलाकर कोई नया नुसख़ा तैयार कर लेते थे। इस काल की महत्वपूर्ण पुस्तकों में एक तिब्बुल अइम्मा है जिसका संबंध तीसरी शताब्दी हिजरी से है। लगभग इसी काल में इब्ने हबीब उंदलुसी ने मुख़तसर फ़ी तिब नामक पुस्तक लिखी थी जिससे बाद के लेखकों ने बड़ा लाभ उठाया। सातवीं और आठवीं शताब्दी हिजरी में इन पुस्तकों को बहुत पसंद किया गया और आज तक इनसे लाभ उठाया जाता है।
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