पवित्र रमज़ान-27
पवित्र रमज़ान-27
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पैगम्बरे इस्लाम (स) का कथन हैः “जो व्यक्ति भीषण गर्मी में रोज़े रखे और उसे प्यास लगे तो ईश्वर हज़ार फ़रिश्तों को भेजता है कि उसके चेहरे को सहलायें और उससे अच्छी बातें करें यहां तक कि (इफ़तार का समय आ जाये) वह इफ़तार कर ले, फिर ईश्वर कहता हैः हे मेरे फ़रिश्तो, गवाही दो कि मैंने उसके पापों को क्षमा कर दिया। कार्यक्रम के इस भाग में हम इमाम ज़ैनुल आबेदीन(अ) की प्रसिद्ध दुआ मकारेमुल अख़लाक़ के कुछ भागों की व्याख्या कर रहे हैं। इमाम, ईश्वर की सेवा में विन्ती करते हैः“ हे पालनहार, मोहम्मद और उनके परिजनों पर सलाम भेज तथा मुझे आजीविका कमाने की कठिनाईयों में सहायता प्रदान कर।” आजीविका कमाने के लिये प्रयास करना उन विषयों में है जिन पर इस्लामी शिक्षाओं में बहुत बल दिया गया है और महापुरूषों ने न केवल लोगों को इस काम के लिये प्रोत्साहित किया है बल्कि स्वयं भी इस मार्ग पर अत्याधिक प्रयास किये हैं। जिसे भोजन की आवश्यकता हो उसे परिश्रम की कठिनाई भी सहन करनी चाहिये तथा अपने श्रम व प्रयास से अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिये ताकि समाज में सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सके। जो व्यक्ति बिना किसी लज्जा और कठिनाई के अपना बोझ दूसरों पर डाल दे तथा दूसरों के श्रम से अपना जीवन चलाये तो उसे ज्ञात होना चाहिये कि अपने इस कार्य से वह अपने मानवीय मूल्यों को पांव तले रौंद रहा है। इस प्रकार के लोग न केवल समाज की दृष्टि में नीच व तुच्छ होते हैं बल्कि ईश्वर के समक्ष भी वे धुतकारे हुये व तुच्छ रहते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का एक कथन है कि “जो व्यक्ति अपने जीवन के बोझ को दूसरों पर लाद देता है वह ईश्वरीय धिक्कार का पात्र बनता है।” आज के युग में काम व रोज़गार तथा आर्थिक स्वाधीनता का विषय पहले से कहीं अधिक महत्व प्राप्त कर चुका है और राष्ट्रों का भविष्य बड़ी सीमा तक उनकी आर्थिक स्थिति से जुड़ा होता है। वर्तमान विश्व में हर देश की राजनैतिक स्वाधीनता, उसकी सांस्कृतिक ,सैनिक तथा आर्थिक स्वाधीनता पर निर्भर होती है। यदि कोई देश इन तीनों विषयों में स्वाधीन होता है तो वह अपने भविष्य एवं भाग्य के सम्बंध में स्वयं निर्णय ले सकता है, परन्तु दूसरी स्थिति में वह राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन नहीं होता। पैग़म्बरे इस्लाम(स) ने 1400 वर्ष पूर्व सांसकृतिक, सैनिक तथा आर्थिक स्वाधीनता के बारे में कि जो सामाजिक सम्मान तथा राजनैतिक स्वाधीनता का कारण होती है बात की है तथा उसे सांकेतिक रूप में एक छोटे से कथन में इस प्रकार ब्यान किया है “तीन ध्वनियां हैं जो ईश्वर के पास पहुंचती हैः प्रथम विद्वानों के क़लम की आवाज़ जो कागज़ पर चलते समय निकलती है, दूसरे सत्य के मार्ग पर संघर्ष करने वालों के पैरों की ध्वनि तथा पवित्र एवं ईमान वाली महिलाओं के धागा बनाने वाले चरख़े की आवाज़।” विद्वानों के क़लम की आवाज़ सांसकृतिक स्वतन्त्रता का प्रतीक है, संघर्ष कर्ताओं के पैरों की आवाज़ सैन्य स्वाधीनता का प्रतीक है तथा महिलाओं के सूत कातने की आवाज़ आर्थिक स्वतन्त्रता व स्वाधीनता का प्रतीक है। इस आधार पर मुस्लिम राष्ट्र के उन प्रयासों व कर्मों पर जो आर्थिक स्वाधीनता तथा दूसरों पर निर्भरता से छुटकारे के लिये किये गये हों इस्लामी शिक्षाओं में बहुत अधिक ध्यान दिया गया है। इमाम सज्जाद(अ) की दुआ में भी अपनी तथा अपने परिवार की आर्थिक स्वाधीनता के लिये आजीविका कमाने में सहायता के लिये ईश्वर से विनती की गयी है ईरान के प्रसिद्ध विद्वान मोहम्मद ग़ज़ाली पवित्र नगर मशहद के निकट स्थित तूस के रहने वाले थे। उस काल में अर्थात पांचवीं हिजरी के लगभग नैशापूर उस क्षेत्र का ज्ञान का केन्द्र था और ज्ञान के प्यासे ज्ञान व शिक्षा प्राप्ति के लिये नैशापुर जाते थे। ग़ज़ाली भी नैशापूर व गुरगान गये और बड़े-2 विद्वानों से पूरी मेहनत व लगन के साथ ज्ञान प्राप्त करना आरम्भ किया। मोहम्मद ग़ज़ाली अपने ज्ञान को संजो कर रखने के लिये जो कुछ पढ़ते उसे लिख लिया करते थे और स्पष्ट सी बात है कि अपनी वह लिखित सामग्री, उनको अत्यन्त प्रिय थी। वर्षों बाद जब वे अपने घर लौटने लगे तो अपने लिखित ज्ञान को बहुत संभाल कर उन्होंने उसे एक गठरी में रखा और एक कारवां के साथ तूस की ओर चल पड़े। मार्ग में एक स्थान पर लुटेरों ने कारवां को घेर लिया और सब को लूट कर सारा माल एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया। इसके पश्चात किसी की दृष्टि ग़ज़ाली और उनके सामान पर पड़ी, चोरों ने जब ग़ज़ाली की गठरी की ओर हाथ बढाया तो ग़ज़ाली रोने गिड़गिड़ाने लगे कि मेरा सब कुछ ले लो परन्तु इस गठरी को छोड़ दो। चोरों ने सोचा कि गठरी में अवश्य ही कोई मूल्यवान वस्तु है, अतः उन्होने गठरी को खोला, परन्तु उसमें लिखे हुये काग़ज़ों के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उन्होंने क्रोधित होकर कहाः यह सब क्या है, इस का क्या लाभ है। ग़ज़ाली ने उत्तर दियाः जो भी है तुम्हारे लिये बेकार है, परन्तु मेरे लिये लाभदायक है। उन लोगों ने पूछाः तुम्हारे किस काम का है। ग़ज़ाली ने कहाः यह मेरी कई वर्षों की शिक्षा का फल है, यदि यह मुझ से छीन लिया जाये तो मेरे समस्त ज्ञान का विनाश हो जायेगा और शिक्षा प्राप्ति के लिये मैंने जो कठिन परिश्रम किया है वह बेकार चला जायेगा। यह बात सुनकर एक लुटेरे ने कहाः वह ज्ञान जो एक गठरी में रखा जाये और चुराया जा सके वह वास्तव में ज्ञान नहीं है, जाओ और अपने बारे में कुछ और सोचो। साधारण शब्दों में कही गयी इस बात ने ग़ज़ाली को झिंझोड़ कर रख दिया । उस दिन तक वे गुरू की शिक्षाओं को संजो कर रखने को ही ज्ञान समझते थे परन्तु अब उन्होने सोचा कि अपने मस्तिष्क एवं विचारों को विकसित करना होगा, चिन्तन शक्ति को बढ़ाना होगा तथा महत्वपूर्ण विषयों को मस्तिष्क में संजोना होगा न कि काग़ज़ पर। ग़ज़ाली स्वयं कहते हैं कि “ मैंने उत्तम उपदेश, जो जीवन में मेरे विचारों के लिये मार्ग दर्शक बना, एक चोर से सुना। हज़रत अली(अ) के अपने सुपुत्र इमाम हसन(अ) को लिखे पत्र का एक भाग कार्यक्रम के अन्त में आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं। अली (अ) कहते हैः शान्त रहो और थोड़ा संयम बरतो, बहुत जल्दी अन्धेरा छंट जायेगा, वास्तविक्ता स्पष्ट हो जायेगी। लगता है कि यह यात्री अपने गंतव्य तक पहुंच गये हैं तथा आयु के अन्त को स्वयं अपनी आंखों से देख रहे हैं। निकट है कि जो तेज़ गति से चलता है वह गंतव्य अर्थात मृत्यु तक पहुंच जाये। हे मेरे पुत्र जान लो कि जिसकी सवारी रात और दिन है उसको ले जा रहा है, वह चल रहा है। हज़रत अली (अ) पत्र के इस भाग में अपने सुपुत्र को मृत्यु के संबंध में एक बार फिर चेतावनी देते हैं। अन्धकार का अर्थ यहां पर संसार से अज्ञानता है, कुछ लोग संसार के इस ठिकाने को स्थायी मानते हैं परन्तु थोड़े ही समय में मृत्यु अपना रूप दिखा देती है। इसी लिये इमाम ने इस संसार के लोगों को यात्री कहा है जो अपने गंतव्य की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं और गंतव्य वही मृत्यु है। हज़रत अली (अ) संसार के लोगो के बारे में बड़ी सुंदर बात कहते हैः बेटे जान लो कि जिसकी सवारी दिन व रात है उसे ले जाया जा रहा है, यह उस यात्रा की ओर संकेत, जीवन के अन्त को दर्शाता है जो अपनी इच्छा से नहीं होता बल्कि जिसके लिये मनुष्य विवश है। ईश्वर ने सब को समय के घोड़े पर सवार कर रखा है जो वे चाहें या न चाहें अन्तिम बिन्दु की ओर उन्हें ले जाता है, यद्यपि बहुत से लोग इसे नहीं समझते। इस यात्रा में दो बातें अटल हैं, एक सवारी का अपने वश में न होना और दूसरे, गंतव्य का निर्धारित होना। ईश्वर के पैग़म्बर वे लोग हैं जो निरन्तर मार्ग में यात्रियों को चेतित करते रहते हैं और जो लोग नींद में डूब जाते हैं उनको पुकारते रहते हैं कि उठो और मार्ग से अपने लिये आवश्यक सामग्री इकट्ठा करते चलो क्योंकि गंतव्य पर पहुंच कर आवश्यकता की वस्तुयें मिलना संभव नहीं होगा और सब से बढ़कर यह कि इस मार्ग से पीछे लौटना भी संभव नहीं है। कुछ लोग इस बात में विश्वास करते हैं और इस के लिये तय्यारी करते हैं जबकि कुछ लोग इससे इन्कार करते हैं और सुन कर अनसुनी कर देते हैं, ऐसे लोग जब गंतव्य तक पहुंच जाते हैं तब पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी उनके हाथ नहीं लगता।