पवित्र रमज़ान-29
पवित्र रमज़ान-29
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पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की मकारेमुल अख़लाक़ नामक प्रख्यात दुआ में कहते हैं प्रभुवर! अपने प्रेम के लिए मेरे समक्ष एक सरल मार्ग खोल दे और उसके माध्यम से लोक-परलोक की भलाई को मेरे लिए संपूर्ण कर दे। मनुष्यों व पशुओं के अस्तित्व में प्रेम का वही स्थान है जो सितारों और आकाश गंगाओं में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का होता है। जिस प्रकार यह शक्ति, इस महान सृष्टि को पूरी व्यवस्था के साथ उसके स्थान पर बाक़ी रखती है उसी प्रकार प्रेम व स्नेह, जीवों के बाक़ी रहने में बड़ा ही प्रभावी तत्व है। मुसलमानों का दायित्व है कि धर्म एवं धर्मावलंबियों से प्रेम का बीच अपने बच्चों के मन में बोएं और उन्हें ईमान वालों व पवित्र लोगों से प्रेम व स्नेह करने वाला बनाएं। सबसे श्रेष्ठ प्रेम ईश्वर, उसके पैग़म्बर तथा उनके पवित्र परिजनों से प्रेम है। संभव है कि यह प्रश्न किया जाए कि किस प्रकार दूसरों को ईश्वर का प्रेमी बनाया जा सकता है और ईश्वर के प्रेम को उनके अस्तित्व की गहराइयों में पहुंचाया जा सकता है? इसके उत्तर में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के इस कथन को प्रस्तुत किया जा सकता है कि जब ईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से कहा कि मुझसे प्रेम करो और लोगों को भी मेरा प्रेमी बनाओ तो उन्होंने कहा कि प्रभुवर! तू तो जानता है कि मेरे निकट तुझसे अधिक प्रिय कोई नहीं है किंतु मैं किस प्रकार अन्य लोगों के हृदयों को प्रभावित कर सकता हूं और उन्हें तेरा प्रेमी बना सकता हूं। ईश्वर ने इसके उत्तर में कहा कि लोगों को मेरी अनुकंपाओं और नेमतों की याद दिलाओ। यदि वे मेरी नेमतों पर ध्यान देंगे तो मुझे केवल भलाई के साथ ही याद करेंगे। मनुष्य उसके प्रेम करता है जो उसके साथ भलाई करता है। यदि लोग इस बात पर ध्यान दें कि उनका जीवन, स्वास्थ्य, शारीरिक शक्ति और आजीविका सहित सभी नेमतें ईश्वर द्वारा ही प्रदान की गई हैं तो वे उससे प्रेम करने लगेंगे और सदैव उसका गुणगान करेंगे। अब प्रश्न यह है कि यह कैसे समझा जा सकता है कि हम ईश्वर से प्रेम करते हैं या नहीं? क़ुरआने मजीद ने सूरए आले इमरान की इकतीसवीं आयत में इस प्रश्न का उत्तर दिया है। वह कहता है। हे पैग़म्बर! लोगों से कह दीजिए कि यदि तुम ईश्वर से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो ताकि ईश्वर भी तुमसे प्रेम करे और तुम्हारे पापों को क्षमा कर दे कि वह अत्यंत कृपाशील व दयावान है। इस आयत से पता चलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आदेशों का पालन, ईश्वर से प्रेम के चिन्हों में से एक है। उनका आज्ञापालन मनुष्य को ईश्वर के प्रेम का पात्र बना देता है और वह उसके सभी पापों को अपनी दया व कृपा से क्षमा कर देता है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम अपनी इस दुआ के दूसरे वाक्य में ईश्वर से कहते हैं कि प्रभुवर! अपने प्रेम की अतुल्य संपत्ति से लोक-परलोक की भलाई को मेरे लिए संपूर्ण कर दे। ईश्वर से प्रेम का सबसे बड़ा प्रभाव, उसके पैग़म्बर और धर्म की शिक्षाओं का अनुसरण है। इस्लाम एक व्यापक एवं संपूर्ण धर्म है जिसमें लोक-परलोक की सभी भलाइयां मौजूद हैं। यदि कोई ईश्वर से प्रेम की भावना के अंतर्गत पैग़म्बरे इस्लाम का अनुसरण करे और क़ुरआन की शिक्षाओं का पालन करे जो इस्लामी आदेशों का स्रोत है तो उसे लोक-परलोक में अपने कर्म के अनुसार भलाई प्राप्त होगी। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अपने साथियों के साथ बैठे हुए थे और उनके साथियों ने उन्हें इस प्रकार घेरे में ले रखा था मानो अंगूठी के बीच में नग हो। इस्लामी परंपरा के अनुसार जब कोई किसी बैठक या गोष्ठी में पहुंचे तो उसे जो ख़ाली स्थान दिखाई पड़े वहीं बैठ जाए चाहे वह जिस पद पर भी आसीन हो। एक ग़रीब मुसलमान, जिसके बाल बिखरे हुए और कपड़े फटे-पुराने थे, वहां आया और उसके इधर-उधर देखा और जो जगह ख़ाली दिखाई दी, वहीं पर बैठ गया। संयोग से वहीं पर एक धनवान व्यक्ति बैठा हुआ था। उस व्यक्ति ने अपने कपड़े समेटे और अपने स्थान से थोड़ा दूर खिसक गया। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने, जो बड़े ध्यान से यह बात देख रहे थे उस धनवान व्यक्ति की ओर मुख करके कहाः क्या तुम्हें यह भय हुआ कि उसकी दरिद्रता तुम से चिपक जाएगी? उसने कहाः नहीं, हे ईश्वर के दूत! पैग़म्बर ने फिर पूछाः क्या तुम्हें इस बात का डर लगा कि तुम्हारे धन का एक भाग उसके पास चला जाएगा? उस व्यक्ति ने उत्तर दियाः नहीं हे ईश्वर के पैग़म्बर। उन्होंने पूछाः क्या तुम इस बात से डर गए कि तुम्हारे कपड़े मैले हो जाएं? उसने कहाः नहीं या रसूल्लल्लाह। पैग़म्बर ने उससे पूछाः तो फिर तुम क्यों उसके पास से हट गए? वह धनवान व्यक्ति बहुत अधिक लज्जित हुआ। उसने कहा कि मैं स्वीकार करता हूं कि मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। अब मैं इस ग़लती की भरपाई और अपने पाप के प्रायश्चित के लिए अपनी संपत्ति का आधा भाग अपने इस मुसलमान बंधु को देने के लिए तैयार हूं जिसके संबंध में मैंने यह ग़लती की है किंतु उसी समय वह दरिद्र व्यक्ति बोल पड़ा कि मैं इसके लिए तैयार नहीं हूं। लोगों ने आश्चर्य से इसका कारण पूछा। उसने कहा चूंकि मुझे भय है कि किसी दिन मैं भी घमंडी हो जाऊं और अपने मुसलमान भाई के साथ वैसा ही व्यवहार करूं जैसा आज इसने मेरे साथ किया है। इस भाग में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम द्वारा अपने बड़े पुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम को की गई वसीयत के एक भाग पर दृष्टि डालते हैं। वे कहते हैं। हे मेरे पुत्र! जो सत्य से आगे बढ़ जाता है उसका मार्ग संकीर्ण हो जाता है और जो अपने भाग्य से मिले पर संतोष करता तो वह उसके पास अधिक बाक़ी रहता है और उसकी स्थिति स्थिर होती है। और तुम्हारे लिए सबसे बड़ा सहारा यह है तुम अपने और अल्लाह के मध्य संपर्क स्थापित करो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र से कहते हैं कि जो कोई सत्य की सीमा को लांघता है वह तंग रास्ते में फंस जाता है क्योंकि सत्य का मार्ग खुला हुआ, व्यापक, सीधा और प्रकाशमयी है किंतु असत्य का मार्ग संकीर्ण, घुमावदार और पथरीला है। जो लोग सत्य के मार्ग पर चलते हैं वे बड़ी तेज़ी से गंतव्य की ओर आगे बढ़ते हैं क्योंकि सृष्टि, सत्य के मार्ग पर है और जो कोई उससे समन्वित होगा वह उसी मार्ग पर चलेगा किंतु असत्य के मार्ग पर चलना, नदी की धारा की विपरीत दिशा में तैरने की भांति है कि जो बड़े वेग से बह रही है और हर क्षण इस बात का ख़तरा है कि तैरने वाला उसमें डूब जाए। इसके अतिरिक्त सत्य का मार्ग उस सड़क की भांति है जिस पर जगह निशानियां लगी हुई हैं जो पथिक को मार्ग की स्थिति और उस पर मौजूद ख़तरों से अवगत कराती रहती हैं किंतु असत्य के मार्ग पर इस प्रकार का कोई चिन्ह नहीं है जिसके कारण उस पर चलने वाले के हर क्षण पथभ्रष्ट होने का ख़तरा रहता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम आगे चल कर कहते हैं कि जो कोई अपने भाग्य से मिले पर संतोष करे उसकी स्थिति अधिक स्थिर होती है। हज़रत अली का इसी प्रकार का एक अन्य वाक्य है जिसमें उन्होंने कहा है कि ईश्वर दया करे उस व्यक्ति पर जो अपने भाग से मिले पर संतुष्ट रहे और अपनी सीमा से आगे न बढ़े। अनुभव से पता चलता है कि जो लोग अपनी सीमा से आगे बढ़ जाते हैं वे लोगों को अपना शत्रु बना लेते हैं और न केवल यह कि लोग उनकी स्थिति को स्वीकार नहीं करते बल्कि उन्हें उनके वास्तविक एवं उचित स्थान से भी नीचे उतार देते हैं क्योंकि लोग इस प्रकार के अयोग्य दावेदारों और बड़बोलों को धूर्त, धोखेबाज़ और विश्वासघाती के रूप में पहचानते हैं और उन्हें तनिक भी महत्व नहीं देते। इसके विपरीत वे, सच्चे और अपने अधिकार पर संतुष्ट रहने वालों को मूल्यवान समझते हैं तथा उनकी स्थिति का सम्मान करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की एक अन्य सिफ़ारिश, ईश्वर से संपर्क साधने की है। भौतिक साधनों की शरण में जाना और ईश्वर की बनाई हुई रचनाओं से सहायता चाहना कभी भी विश्वस्त नहीं हो सकता और संभव है कि ये सभी बड़ी सरलता से पराजित हो जाएं किंतु ईश्वर का पवित्र अस्तित्व अत्यंत सशक्त व अमर है और कोई भी चीज़ उसकी शक्ति को सीमित नहीं कर सकती अतः जो भी अपने पालनहार पर भरोसा करे तो उसने अत्यंत विश्वस्त और अमर स्रोत पर भरोसा किया है। कुछ लोगों ने कहा है कि ईश्वर से मनुष्य को जोड़ने वाले साधन से हज़रत अली अलैहिस्सलाम का तातपर्य ईमान व क़ुरआन है किंतु इस वाक्य का अर्थ अत्यंत व्यापक है और इसमें वे सभी साधन शामिल हो सकते हैं जो मनुष्य को ईश्वर से निकट करें। http://hindi.irib.ir/