माहेरीने नफ़सीयात की सर्च और उनके खुलासे

इंसानी रूह के विभिन्न पहलुओं और उसकी वास्तविक इच्छाओं पर रीसर्च भी इस बात का स्पष्ट सबूत है कि धार्मिक एतेक़ाद और दीन एक फ़ितरी मसअला है।

चार मशहूर व मारूफ़ एहसास (या चार उच्च इच्छाऐं (ख़्वाहिशात) और इंसानी रूह के बारे में नफ़सीयाती माहेरीन ने जो चार पहलू चीज़ें बयान की हैं वह नीचे दी गईं हैं: (1) एहसासे दानाई (2) एहसासे ज़ीबाई (ख़ूबसूरती) (3) एहसासे नेकी (4) एहसासे मज़हबी, इन मतालिब और बयानों पर स्पष्ट व रौशन दलीलें हैं। (1) इंसान की हिस धार्मिक या रूहे इंसान का चौथा पहलू, जिस को कभी ''कमाले मुतलक़ का लगाव'' या ''धार्मिक और इलाही लगाव'' कहा जाता है यह वही एहसास और शक्ति है जो इंसान को धर्म की ओर दावत देती है और बिना किसी ख़ास दलील के अल्लाह पर ईमान ले आती है, लेकिन संभव है कि इस मज़हबी ईमान में बहुत सी बुराईयाँ पाई जाती हों, जिस का नतीजा कभी बुतों की पूजा, या सूर्य की पूजा के रूप में दिखाई दे, लेकिन हमारी बातचीत वास्तविक स्रोत के बारे में है। (1) मज़हबी एहसास या बादे चहारम रूहे इंसानी 'मैं' 'कौंटाईम' के मुक़ाबले की ओर जाएँ। (4) मज़हब के विरोधी दुष्प्रचार का असफ़ल हो जाना जैसा कि हम जानते हैं कि कुछ अंतिम सदियों में खासकर यूरोप में धर्म के विरोधी प्रचार बहुत ज़्यादा हुए हैं जो अभी तक व्यापक और वैश्विक संसाधनों के लिहाज़ से अभूतपूर्व है। सबसे पहले यूरोप का इल्मी आंदोलन (रनसांस) के ज़माने से जब इल्मी और राजनीतिक समाज गिरजाघर की हुकूमत के दबाव से मुक्त हुआ तो उस समय इतने दीन के खिलाफ़ प्रचार हुए जिस से अलहादी नज़रिया यूरोप में अस्तित्व में आया है और हर जगह फैल गया (हालांकि यह मुख़ालिफ़त ईसाई दीन के खिलाफ़ हुई क्योंकि यही दीन वहाँ पर राएज था) इस संबंध में फलासफ़ा और विज्ञान के विशेषज्ञों (माहिरों) से मदद ली गई ताकि धार्मिक आधार को खोखला कर दिया जाए यहां तक कि चर्च की रौनक जाती रही और यूरोपीयन धार्मिक गुरु एक कोने में बेठ गए, यही नहीं बल्कि अल्लाह, मोजिज़ा, आसमानी किताब और क़यामत के दिन पर ईमान की गिनती बेकार चीज़ों में किया जाने लगा, और इंसानियत के चार ज़माने वाला फरज़िया (क़िस्सा और कहानी का ज़माना, मज़हब का ज़माना, फ़लसफ़े का ज़माना और इल्म का ज़माना) बहुस से लोगों के नज़दीक क़ाबिले क़बूल माना जाने लगा और इस तक़सीम बंदी के अनुसार धर्म का ज़माना बहुत पहले गुज़र चुका था! अजीब बात तो यह है कि आजकल का समाज पहचानने की पुस्तकों में जो कि इसी ज़माने की तरक़्क़ी याफ़ता किताबें हैं उनमें इस फार्मूले को एक अस्ल के उनवान से माना गया है कि धर्म का एक नेचुरल कारण है चाहे वह कारण 'जहालत'' या ''डर'' या ''सामूहिक ज़रूरतें''  या ''आर्थिक परेशानी'' हालांकि उनके नज़रिये में मतभेद पाया जाता है! यह अपनी जगह अटल है कि उस समय प्रचलित धर्म यानी चर्च ने एक लंबे समय तक अपने ज़ुल्म व सितम और वैश्विक स्तर पर लोगों के साथ बेरहमी वाला व्यवहार किया और खासकर वैज्ञानिकों पर बहुत सख्तियाँ कीं तथा अपने लिए बहुत आरामतलब और दिखावे की ज़िन्दगी के क़ायल हुए और ग़रीब लोगों को बिल्कुल भूल गए इसलिए उन्हें अपने कार्यों की सज़ा तो भुगतनी ही थी, लेकिन मुश्किल यह है कि यह केवल बाप और चर्च की समस्या नहीं थी बल्कि दुनिया भर के सभी धर्मों की बात थी। कम्युनिस्टों ने धर्म को मिटाने के लिए अपनी पूरी ताक़त ख़र्च कर दी और सभी तबलीग़ाती संसाधन और फ़लसफ़ी विचारों को लेकर मैदान में आए और इस प्रोपगन्डे की पूरी कोशिश की कि ''धर्म समाज के लिए ''अफ़ीम'' (नशा) है! लेकिन हम देखते हैं कि धर्म की इस गंभीर विरोध (शदीद मुख़ालेफ़त) के बावजूद वोह लोगों के दिलों से धर्म के मूल को नहीं मिटा सके और धार्मिक उत्साह को नष्ट न कर सके, इस तरह से कि आज हम खुद अपनी आँखों से देखते हैं कि धार्मिक भावनाओं पर फिर से निखार आ रहा है, यहां तक कि खुद कम्युनिस्ट देशों में बड़ी तेज़ी से धर्म की बातें हो रही हैं और मीडिया की हर ख़बर में इन देशों के अधिकारियों की परेशानी को बयान किया जा रहा है कि वहाँ पर धर्म विशेषकर इस्लाम की ओर लोगों का रुझान दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है यहां तक कि खुद कम्युनिस्ट देशों में जहाँ अभी तक धर्म विरोधी शक्तियां बेहूदा कोशिशें जारी रखे हुए हैं, वहाँ पर भी धर्म फैलता हुआ नज़र आता है। इन समस्याओं के आधार पर यह बात स्पष्ट (वाज़ेह) हो जाती है कि धर्म का स्रोत ख़ुद इंसान 'फ़ितरत' है, इसलिए वोह बहुत ज़्दाया मुख़ालेफ़त के बावजूद भी अपनी सुरक्षा करने पर क़ादिर है और अगर ऐसा न होता तो धर्म कभी का मिट गया होता।