ये हक़ीक़त है

ये हक़ीक़त है

ये हक़ीक़त है

Publish number :

पहला

Publish location :

2010

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1

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ये हक़ीक़त है

इस्लाम जब आया तो आपस में लोग अलग अलग और बहुत से गिरोहों में बटे हुए ही नही थे बल्कि एक दूसरे से लड़ाई , झगड़े और ख़ून ख़राबे में लगे रहते थे मगर इस्लामी तालीमात के सदक़े में आपसी दुश्मनी और एक दूसरे से अजनबियत की जगह मेल जोल और दुश्मनी की जगह एक दूसरे की मदद और रिश्ते तोड़ने की बजाए नज़दीकी पैदा हुई और इसका नतीजा यह हुआ कि इस्लामी हुकुमत एक अज़ीम उम्मत की शक्ल में सामने आई।

जिसने उस वक़्त अज़ीम इस्लामी तहज़ीब व तमद्दुन को पेश किया और इस्लाम से वाबस्ता गिरोहों को हर ज़ालिम व जाबिर से बचा लिया और उनकी पुश्त पनाही की। जिस की बेना पर यह उम्मत दुनिया की तमाम कौ़मों में क़ाबिले ऐहतेराम क़रार पाई और ज़ालिमों की निगाहों में रोब व दबदबे और हैबत के साथ ज़ाहिर हुई।

लेकिन यह सब चीज़ें नही वुजूद में आयीं मगर इस्लामी उम्मत के दरमियान आपस का इत्तेहाद व भाईचारगी और तमाम गिरोहों का एक दुसरे से राब्ता रखने की बेना पर जो कि दीने इस्लाम के साये में हासिल हुआ था , हालाँकि इन की शहरियत , राय , सक़ाफ़त , पहचान और तक़लीद अलग अलग थी। अलबत्ता उसूल व असास फ़रायज़ व वाजिबात में इत्तेफ़ाक़ व इत्तेहाद काफ़ी हद तक मौजूद था। यक़ीनन इत्तेहाद , क़ुव्वत और इख़्तिलाफ़ कमज़ोरी है।

बहरहाल यह मसअला इसी तरह जारी रहा यहाँ कि एक दूसरे से जान पहचान और आपसी मेल जोल की जगह इख़्तिलाफ़ात ने ले ली और एक दूसरे की समझने की जगह नफ़रत ने ले ली और एक गिरोह दूसरे गिरोह के बारे में कुफ़्र के फ़तवे देने लगा इस तरह फ़ासले पर फ़ासले बढ़ते गये। जिसकी वजह से जो रही सही इज़्ज़त थी वह भी रुख़सत हो गई और मुसलमानों की सारी शानो शौकत ख़त्म हो गई और सारा रोब व दबदबा जाता रहा और हालत यह हुई कि क़यामत की अलमबरदार क़ौम ज़ालिमों के हाथों ज़िल्लत व रुसवाई उठाने पर मजबूर हो गई। यहाँ तक कि उनकी नशवो नुमा के दहानों में लोमड़ी और भेड़िये सिफ़त लोग क़ाबिज़ हो गये। यही नही बल्कि उनके घरों के अँदर तमाम आलम की बुराईयाँ , और दुनिया के सबसे बुरे और ख़राब लोग घुस आये। नतीजा यह हुआ मुसलमानों का सारा माल व मनाल लूट लिया गया और उनके मुक़द्देसात की तौहीन होने लगी और उनकी इज़्ज़तें फ़ासिक़ो और फ़ाजिरों की मरहूने मिन्नत हो गई और पस्ती के बाद पस्ती और हार के बाद हार होने लगी। कहीं अंदुलुस में खुली हुई हार का सामना हुआ तो कहीं बुख़ारा और समरकंद , ताशकंद , बग़दाद , माज़ी और हाल में फ़िलिस्तीन और अफ़ग़ानिस्तान में हार पर हार का सामना करना पड़ा।

और हाल यह हो गया कि लोग मदद के लिये बुलाते थे लेकिन कोई जवाब देने वाला न था , फ़रियाद करने वाले थे मगर कोई उनकी फ़रियाद सुनने वाला नही था।

ऐसा क्यों हुआ , इसलिये कि बीमारी कुछ और थी दवा कुछ और , अल्लाह ने तमाम कामों की बागडोर उनके ज़ाहिरी असबाब पर छोड़ रखी है , क्या इस उम्मत की इसलाह उस चीज़ के अलावा किसी और चीज़ से भी हो सकती है कि जिससे इब्तेदा में हुई थी ?

आज उम्मते इस्लामी अपने ख़िलाफ़ किये जाने वाले समाजी , अक़ीदती और इत्तेहाद मुख़ालिफ़ सबसे शदीद और सख़्त हमले से जूझ रही है , मज़हबी मैदानों में अंदर से इख़्तिलाफ़ किया जा रहा है , इज्तेहादी चीज़ों को इख़्तिलाफ़ी चीज़ों के तौर पर पेश किया जा रहा है और यह हमला ऐसा है कि इसके बुरे नतीजे ज़ाहिर होने वाले ही हैं , क्या ऐसे मौक़े पर हम लोगों के लिये बेहतर नही है कि अपने इत्तेहाद की सफ़ों को मुत्तसिल रखें और आपसी ताअल्लुक़ात को मोहकम व मज़बूत करें ? हम मानते हैं कि अगरचे हमारे बाज़ रस्म व रिवाज अलग अलग हैं मगर हमारे दरमियान बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जो एक और मुशतरक हैं जैसे किताब व सुन्नत जो कि हमारा मरकज़ और सर चश्मा हैं , वह मुशतरक हैं तौहीद व नबुव्वत , आख़िरत पर सब का ईमान है , नमाज़ व रोज़ा , हज व ज़कात , जिहाद और हलाल व हराम यह सब हुक्मे शरीयत हैं जो सब के लिये एक और मुशतरक है , नबी ए अकरम (स) और उनके अहले बैत (अ) से मुहब्बत और उनके दुश्मनों से नफ़रत करना हमारे मुशतरेकात में से हैं। अलबत्ता इसमे कमी व ज़ियादती ज़रुर पाई जाती है , कोई ज़्यादा मुहब्बत और दुश्मनी का दावा करता है और कोई कम , लेकिन यह ऐसा ही है जैसे कि एक हाथ की तमाम उँगलियाँ आख़िर में एक ही जगह (जोड़ से) जाकर मिलती हैं , हालाँकि यह तूल व अर्ज़ और शक्ल व सूरत में एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं या उसकी मिसाल एक जिस्म जैसी है , जिसके आज़ा व जवारेह मुख़्तलि़फ़ होते हैं , मगर बशरी फ़ितरत के मुताबिक़ जिस्मानी पैकर के अंदर हर एक का किरदार जुदा जुदा होता है और उनकी शक्लों में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है , मगर इसके बावजूद एक दूसरे के मददगार होते हैं और उनका मजमूआ एक ही जिस्म कहलाता है।

चुनाँचे बईद नही है कि उम्मते इस्लामिया की तशबीह जो यदे वाहिद और एक बदन से दी गई है इस में इसी हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया गया हो।

साबिक़ में मुख़्तलिफ़ इस्लामी फ़िरक़ों और मज़ाहिब के उलामा एक दूसरे के साथ बग़ैर किसी इख़्तिलाफ़ के ज़िन्दगी गुज़ारते थे बल्कि हमेशा एक दूसरे के साथ मदद किया करते थे , हत्ता बाज़ ने एक दूसरे के अक़ायदी या फ़िक़ही किताबों के शरह तक की है और एक दूसरे से शरफ़े तलम्मुज़ हासिल किया , यहाँ तक कि बाज़ तो दूसरे की तकरीम की बेना पर बुलंद हुए और एक दूसरे की राय की ताईद करते , बाज़ बाज़ को इजाज़ ए रिवायत देते या एक दूसरे से इजाज़ ए नक़्ले रिवायत लेते थे ताकि उनके फ़िरक़े और मज़हब की किताबों से रिवायत नक़्ल कर सकें और एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ते , उन्हे इमाम बनाते , दूसरे के ज़कात देते , एक दूसरे के मज़हब को मानते थे , ख़ुलासा यह कि तमाम गिरोह बड़े प्यार व मुहब्बत से एक दूसरे के साथ ऐसे ज़िन्दगी गुज़ारते थे , यहाँ तक कि ऐसा महसूस होता था कि जैसे उनके दरमियान कोई इख़्तिलाफ़ ही नही है , जबकि उन के दरमियान तन्क़ीदें और ऐतेराज़ात भी होते थे लेकिन यह तंक़ीदें मुहज़्ज़ब व मुवद्दब अंदाज़ में किसी इल्मी तरीक़े से रद्द होती थी।

इस के लिये ज़िन्दा और तारीख़ी दलीलें मौजूद हैं , जो इस अमीक़ और वसीअ तआवुन पर दलालत करती हैं , मुस्लिम उलामा ने इसी तआवुन के ज़रिया इस्लामी सक़ाफ़त और मीरास को सैराब किया है , उन्ही चीज़ों के ज़रिये मज़हबी आज़ादी के मैदान में उन्होने ताज्जुब आवर मिसालें क़ायम की हैं बल्कि वह इसी तआवुन के ज़रिये दुनिया में क़ाबिले ऐहतेराम क़रार पाये हैं।

यह मुश्किल मसअला नही है कि उलामा ए उम्मते मुसलिमा एक जगह जमा न हो सकें और सुल्ह व सफ़ाई से किसी मसअले में बहस व मुबाहसा न कर सकें और किसी इख़्तिलाफ़ी मसअले में इख़लास व सिदक़े नीयत के साथ ग़ौर व ख़ौज़ न कर सकें , नीज़ हर गिरोह को न पहचान सकें।

जैसे यह बात कितनी माक़ूल और हसीन है कि हर फ़िरक़ा अपने अक़ायद और फ़िक़ही व फ़िक्री मौक़िफ़ को आज़ादाना तौर पर वाज़ेह फ़ज़ा में पेश करे , ता कि उनके ख़िलाफ़ जो इत्तेहाम , ऐतेराज़ , दुश्मनी और बेजा जोश में आने का , जो उमूर सबब बनते हैं वह वाज़ेह व रौशन हो जायें और इस बात को सभी जान लें कि हमारे दरमियान मुशतरक और इख़्तिलाफ़ी मसायल क्या हैं ता कि लोग उस से जान लें कि मुसलमानों के दरमियान ऐसी चीज़ें ज़्यादा हैं जिन पर सबका इत्तेफ़ाक़ है और उनके मुक़ाबले में इख़्तिलाफ़ी चीज़ें कम हैं , इससे मुसलमानों के दरमियान मौजूद इख़्तिलाफ़ और फ़ासले कम होगें और वह एक दूसरे के नज़दीक आ जायें।

यह रिसाला इसी रास्ते का एक क़दम है , ता कि हक़ीक़त रौशन हो जाये और उस को सब लोग अच्छी तरह पहचान लें , बेशक अल्लाह तौफ़ीक़ देने वाला है।